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गुणस्थान
४६३ कुछ देर बाद राजा ने पूछा-'भूदेव । क्या मांगने का विचार किया?"
कपिल ने कहा-"महाराज | कुछ नहीं माँगना ।" राजा ने कहा-"ऐसा क्यों ?"
कपिल ने कहा- "हे राजन् ! लोभ रुकना नहीं जानता । ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। इसलिए लोभ का ही परित्याग कर डालना चाहिए।'
राजा ने कहा-"पर ऐसा विचार करोगे तो तुम्हारा निर्वाह वैसे होगा? इसलिए मैं खुशी से तुम्हे करोड़ अशर्फियाँ देता हूँ। उन्हें तुम स्वीकार करो।"
कपिल ने कहा-"राजन् । जब तक मन में तृष्णा थी, तब तक यह लगता था कि धन सुख का अनिवार्य साधन है । पर, अब तृष्णा छूट जाने पर धन की आवश्यकता नहीं रही । सन्तोष ही परम धन है और उसे प्राप्त करके मै सुखी हो गया हूँ।"
यह कहकर कपिल वहाँ से चल पड़ा। राजा और अन्य सभाजन उसकी निःस्पृहता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे।
विषय भी एक प्रकार की तृष्णा है, इसलिए कपिल ने उसका भी त्याग कर दिया और यह सोचकर--"मुक्ति का सुख दिलावे वही सच्ची विद्या है" उसने पाठशाला का भी त्याग कर दिया। फिर किसी निर्ग्रन्थ मुनि के समीप (पाँच) महाव्रत धारण कर चारित्र का निरतिचार पाल्न करने लगा। इससे ६ ही महीने मे आत्मा की सम्पूर्ण शुद्धि करके वे केवलज्ञानी हो गये और लोगों को सत्य धर्म का उपदेश करने लगे।
(१०) सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान आत्मा स्थूल कषायों से सर्वथा निवृत्त हो गया हो, पर सूक्ष्म कपायों