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आत्मतत्व-विचार
आधा राज मॉगने दो। पर, उसमें राजा का मुकाबला रहेगा। तब क्या सारा राज्य मॉग ?"
इस आखिरी विचार के आते ही उसके मन में धक्का लगा। "जिस राजा ने मुझ पर महरबानी करके मेरा मनोरथ पूरा करना चाहा, क्या उसी को फकीर बना देना चाहिए । नहीं, नहीं। यह ठीक नहीं होगा । तत्र क्या आधा राज्य ले ? नहीं, नहीं । उसमे भी मुकाबला रहेगा और उपकारी का जी दुखेगा। तब क्या करोड़ अशर्फियाँ ही मॉगी जायें ? पर इतनी का क्या करना है ? ज्यादा होगी तो आफत आयेगी। तब क्या लाख अशर्फियाँ मॉगू कि, जिससे एक हबेली बन जाये और मेरा सारा व्यवहार सरलतापूर्वक चलता रहे ?' परन्तु अन्तःकरण ने यह बात भी मंजूर नहीं की । "इतना ज्यादा पैसा होगा तो मौज-शौक बढेंगे और उत्तम जीवनयापन नहीं हो सकेगा । तब क्या करूँ ? हजार मागू ? सौ मागू ? पचास मायूँ ? पच्चीस मॉD ?' अधिक विचार करने पर उसे ऐसा लगा कि, 'मुझे किसी भी तरह की ज्यादा मॉग नहीं करना, पर प्रसूति के खर्च लायक सिर्फ पाँच अशर्फियों ही मॉगना ।'
लेकिन, गाड़ी सीधी लाइन पर चढ़ गयी थी, इसलिए अन्तर को वह भी न रुचा । उसने विचार किया-"मैं तो दो माशा सोना लेने आया था, पर राजा ने भलमनसाहत दिखलायी, इसलिए उसका लाभ लेने तैयार हो गया । इसे उचित नहीं कहा जा सकता | इसलिए दो माशा सोना मॉगना ही उचित है।
फिर विचार आया-"जहाँ लोभ है, वहीं दीनता है। इसलिए, कुछ न मॉग कर सन्तोष धारण करना चाहिए । सचमुच, इस जगत् मे सन्तोषजैसा कोई सुख नहीं है। मै जरा-सी तृष्णा में पड़ा कि मेरा विद्याभ्यास छूटा, चारित्र से भ्रष्ट हुआ और इस याचना करने की स्थिति में आ गया। इसलिए, इस तृष्णा से बाज आना चाहिए।"