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आत्मतत्व-विचार
ध्यान चार प्रकार का है-(१) आर्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान और (४) शुक्लध्यान । इनमे पहले दो ध्यान अशुभ है, इसलिए त्याज्य हैं और अन्तिम दो ध्यान शुभ हैं, इसलिए ग्रहणीय हैं, आराधन करने योग्य है । अशुभ ब्यान छोड़े बिना शुभ ध्यान नहीं होता, इसलिए धर्मध्यान करनेवाले को दोनों अशुभ ध्यानों को छोड़ना होता है।
धर्मध्यान चार प्रकार का है . (१) आजा विचय, (२) अपाय विचय, (३) विपाक विचय और (४) सस्थान विचय । सर्वज्ञ ने क्या कहा है ? उसका स्वरूप क्या है ? उन आज्ञाओ का स्वय कितना पालन कर रहा हूँ ? इत्यादि बातो की सतत विचारणा करना आज्ञा विचय धर्म ध्यान है। यह ससार अपाय, यानी दुःख, से भरा हुआ है, इसमें प्राणी को कहीं सुख नहीं है, सासारिक सुख वास्तविक सुख नहीं है, सुख का भ्रम है, जड़ से, पुद्गल से, सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती, सुख तो आत्मा का विकास करने से ही प्राप्त हो सकता है-ऐसी सतत विचारणा करने को अपाय विचय धर्मध्यान कहते हैं। कर्म की प्रकृतियाँ कितनी है ? उनका वध-उदय किस तरह होता है ? कर्म-विपाक कैसा होता है ? मेरी यह हालत किन कर्मों के कारण है ? इस प्रकार की विचारणा निरन्तर करते रहना विपाकविचय धर्म ध्यान है।
[जिसने कर्म का स्वरूप नहीं जाना वह इस प्रकार का ध्यान कैसे कर सकता है ? कर्मों की जो जानकारी आपको दी जा रही है, वह धर्म ध्यान में बड़ी सहायक हो सकती है। द्रव्य और क्षेत्र-सम्बन्धी सतत विचारणा करना संस्थानविचय धर्मव्यान कहलाता है। यहाँ द्रव्य से जीव पुद्गल, वर्मास्तिकाय, आदि ६ द्रव्य समझना चाहिए और क्षेत्र से चौदह रानलोक तथा उसके विभिन्न विभाग समझने चाहिए । तात्पर्य यह कि, इस ध्यान को धरनेवाला 'कमर पर हाथ रखे हुए खड़े पुरुष के समान' चौदह