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आत्मतत्व-विचार
दर्शनावरणीय कर्मों का बन्ध होता है और उसका फल आत्मा को कठोर रीति से भोगना पड़ता है।
मोहनीय कर्मवन्ध के विशेष कारण __ कर्मग्रन्थ मे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के विशेष कारणों की एक गाथा है, तो दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के विशेष कारणों की दो गाथाएँ हैं, कारण कि, ये कर्म सबसे अधिक भयंकर हैं और राग-द्वेष, लड़ायी झगड़ा, विरोध-दुश्मनी आदि नरक गति मे ले जानेवाले तत्त्वों के जनक हैं। ___ दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय की अपेक्षा भयंकर है; कारण कि, उससे मिथ्यात्व आता है और सम्यक्त्व का रोध होता है। जब तक मिथ्यात्व रहता है, तब तक आत्मा भव भ्रमण करता और दुःख भोगता रहता है । सम्यक्त्व के आने पर उसका भव भ्रमण मर्यादित हो जाता है और वह अर्ध-पुद्गल परावर्तन मे जरूर मुक्त हो जाता है।
जो उन्मार्ग की देशना दे, वह दर्शनमोहनीय कर्म का विशेष बन्ध करता है। आप पूछेगे उन्मार्ग क्या ? मार्ग जान जाने से उन्मार्ग अपनेआप समझ में आ जाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक चारित्र सन्मार्ग है तथा मोक्ष-मार्ग है। उसके विरुद्ध जो मार्ग है, वह बुरा मार्ग है-उन्मार्ग है । इसे जरा और स्पष्टतया समझ लें ।
जिससे मिथ्यात्व का पोषण होता हो, वह 'उन्मार्ग' कहलाता है। उसी प्रकार जिस शिक्षण मे पुण्य-पाप का, कर्म का, आत्मभाव का, परमात्मा के ज्ञान का विचार नहीं दिया जाता, वह शिक्षण मिथ्याज्ञान है और उसका फल रागद्वेष, मारकाट, अहंकारादि दुगुणों की वृद्धि है । ऐसे मिथ्या शिक्षण का पोषण करने से दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध होता है और संसार बढता है।