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श्रात्मतत्व-विचार
होती और अस्वस्था दूर करने के यहाँ जो दुःख एक दिन भी सहन
पीड़ा होती है, तो हमसे सहन नहीं लिए हम अनेकानेक उपाय करते हैं । नहीं होता; पर वह दुःख वहाँ करोड़ो दिनों तक भोगना पड़ता है । नरक में सब प्रकार के रोग हैं और उन्हें आत्मा दीर्घकाल तक भोगता है । उनमें से कोई रोग न घटता है, न मिटता है । नरक में सदा घोर अन्धकार रहता है । उस अन्धकार की हम कल्पना भी नहीं कर सकते । वहॉ की जमीन अत्यन्त चिकनी होती है, इसलिए चलनेवाले चार बार गिरते-पडते रहते हैं । वहाँ की जमीन अत्यन्त तीक्ष्ण भी होती है, इसलिए सूई की तरह चुभती है । वहाँ अत्यन्त भयकर दुर्गन्ध भी फैली रहती है ।
नारकी जीव परमाधामी को देखकर इधर-उधर भागने लगते हैं, क्योंकि वह उन्हे पकड़ता है, बाँधता है; भाले में पिरोता है । उनके शरीर के टुकड़े करता है, चूरा भी कर डालता है । परन्तु, नारकियों के शरीर ऐसे होते हैं, कि फिर ज्यों-के-त्यों हो जाते हैं। हर तरफ 'मुझे यहाँ से छुड़ाओ', की दुःखभरी चीत्कार सुनायी पडती है !
यह महादुःख क्यो भोगना पड़ता है ? कारण यही है कि, पूर्व भव मे पाप करते हुए पीछे मुड़कर भी न देखा । अनेक प्रकार की हिंसा की, कषार्यो का पोषण किया और रागद्वेष में लिप्त रहे । भोग के कीड़े बने हुए, आत्मा नरक में घोर दुःख भोगते है । इसलिए जो उन दुःखों से बचना चाहे, उसे चाहिए कि, आसक्ति छोड़ दे और अठारह पापस्थानकों से दूर रहकर धर्माराधन करे ।
मनुष्य जन्म में ही सद्गुरु का उपदेश मिलता है और देव-गुरुधर्म की यथार्य आराधना की जा सकती है । इसलिए, अपना तन-मनधन उसमें समर्पित करो तो नरक के दुःख भोगने की नौबत नहीं आयेगी । जो कपटी, दमी और गूढ- हृदय ( अर्थात् दूसरे को धोखा देने के इरादे से अपने मन की बात प्रक्ट न होने देनेवाला ) है, वह तिर्येच का
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