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गुणस्थान अब मैं अपना तथा अन्य जीवो का नाथ बन चुका हूँ। अब तुझे मेरा नाथ बनने की आवश्यक्ता नहीं रही । यह है, मेरा सयम-धर्म ग्रहण करने का कारण !”
मुनिराज का यह उत्तर सुनकर राजा श्रेणिक बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने दोनों हाथो की अजलि करके कहा-"हे भगवन् ! आपने मुझे अनाथ और सनाथ का मर्म सुन्दर रीति से समझाया। हे महर्षि | आपका मनुष्य-अवतार धन्य है ! आपको ऐसी काति, आपका ऐसा सौम्य और ऐसा प्रभाव धन्य है । जिनेश्वरो के दर्शाये हुए सत्यमार्ग पर व्यवस्थित होकर आप ही सचमुच सनाथ और सबाधव हैं। हे मुनि | अनाथ जीवों के सच्चे नाथ आप ही है। हे योगीश्वर ! मैने अपने मन का कुतूहल शात करने के लिए आपकी साधना में बाधा डाली, इसके लिए क्षमा प्रार्थना करता हूँ।" ___अनाथी मुनि ने कहा-"जिज्ञासुओं को सत्य वस्तु का ज्ञान देना भी हमारी साधना का एक अग है । इससे मेरी साधना भग नहीं हुई। और, तुझ सरीखा तत्त्वशोधक इस तथ्य से योग्य मार्गदर्शन न प्राप्त करे ऐसा मैं नहीं मानता, इसलिए व्यतीत किये हुए समय के लिए मुझे सन्तोष है।"
मगधपति ने कहा-"महर्पि । आपकी मधुरवाणी और आपको निर्भय अन्तःकरण ने मेरे हृदय को जीत लिया है। आप-जैसे त्यागी और तपस्वी को कोई भी आज्ञा शिरोधार्य करने के लिये मैं तैयार हूँ।" ___अनाथी मुनि ने कहा-''हे राजन् ! जहाँ सर्व इच्छाओं, आकाक्षाओं
और अभिलाषाओं का त्याग है, जहाँ माया-ममता का विसर्जन है और जहाँ कोई पौद्गलिक लाभ प्राप्त करने की आसक्ति नहीं है, वहाँ क्या आजा की जाये १ फिर भी आज्ञा करनी ही हो तो वह सामनेवाले के कल्याण की ही हो सकती है।"