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गुणस्थान
४७३ का 'पच्चक्खाण' लेते समय 'दुविहं तिविहेणं' पाठ बोलते है और उसके विशेष अर्थ में 'मणेणं वाचाए कापणं न करेमि न कारवेमि' बोलते है, इसलिए इससे पहले की ६ कोटि मात्र आती हैं। पर, साधु मामायिक का 'पच्चक्खाण' लेते समय 'तिविहं तिविहेणं' पाठ बोलता है
और विशेष अर्थ में 'मरणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समाजाणामि' ऐसा पाठ बोलता है। इस प्रकार उसमे नौ कोटि आ जाती हैं।
पाँच महाव्रत ये हैं--(१) प्राणातिपात-विरमण-व्रत, (२) मृषाचाद-विरमण-व्रत, (३) अदत्तादान-विरमण-व्रत, (४) मैथुन-विरमणव्रत और (५) परिग्रह-विरमण-व्रत । इन महाव्रतों के कारण साधु अहिंसा, -सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रहता का उत्कृष्ट पालन करता है और दूसरो को भी उस मार्ग पर लगाने में प्रयत्नशील रहता है। __ सयत आत्मा इन व्रतों का रक्षण करने के लिए पाँच समिति और तीन गुप्ति-रूप अष्टप्रवचनमाता का पालन करते है अर्थात् अगर उन्हे -चलने की जरूरत हो तो वे दिन में आने-जाने के मार्ग में जीव-जतु रहित
भूमि पर 'धोसरा' परिमाण भूमि को देखकर चले। उसमें किसी भी की विराधना न हो जाये, इसका ध्यान रखे । बोलने की जरूरत हो तो प्रिय, पथ्य और तथ्यपूर्ण वाणी बोले, पर दूसरे का दिल दुखानेवाली कर्कश वाणी का प्रयोग न करे | अपने लिए जरूरी आहार, पानी, औषध आदि माँग कर प्राप्त करे और उसमे कोई दोप न लग जाये, इसकी पर्याप्त सावधानी रखे । वह अपने वस्त्र-पात्र की रोज प्रमार्जना करे और लेतेरखते समय किसी जीव की विराधना न हो इसकी सावधानी रखे । इसके अतिरिक वह मल-मूत्र का उत्मर्ग निरवद्य एकान्त भूमि में करे ।
वह मनोवृत्ति पर काबू रखे, यानी यद्वातद्वा विचार न करे, वचन पर काबू रखे, अर्थात् जरूरत हो तभी बोले, वर्ना मौन रहे, वह काया पर