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गुणस्थान
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अमात्य बुद्धिशाली था और धर्मकार्य में अन्तराय डालने को बुरा समझता था, इसलिए उसने पोट्टिा से कहा-"मैं एक शर्त पर तुझे साध्वी होने की अनुमति दे सकता हूँ -जपतप के परिणाम स्वरूप अगर तू दूसरे भव में देवता हो, तो मुझे प्रतिबोध करने आना।" __शर्त कल्याणकारी थी, इसलिए पोहिला ने स्वीकार कर ली । पोट्टिला ने चारित्र धारण किया और उसके परिणामस्वरूप सद्गति होने पर वह आठवें स्वर्ग मे पोट्टिल-नामक देव बनी।
पोट्टिलदेव को अपना वचन याद आया और वह अमात्य के मन में वैराग्य उत्पन्न करने का प्रयास करने लगा, परन्तु कीर्ति, सत्ता और वैभव में मस्त बने हुए महामात्य को वैराग्य नहीं हुआ। अकेली सत्ता, कीर्ति या वैभव भी मनुष्य को ससार-बधन में जकड़े रखने के लिए काफी है, पर यहाँ तो तीनो थीं | वह अमात्य के दिल में वैराग्य-लता कैसे फैलने दे !
पोट्टिलदेव को लगा कि, दुःख के बिना अमात्य ठिकाने नहीं आयेगा और सच्चा दुःख तो अपमानित होने से ही होगा। इसलिए, एक दिन उसने राजा की बुद्धि फेर दी । अमात्य राज्यसभा में आया तो राजा ने मुँह फिरा लिया। अमात्य समझ गया कि, किसी-न-किसी कारण राजा नाखुश हो गया है, इस रोष से अभिभूत रह कर यह मेरी जान तक ले सकता है, इसलिए मुझे यहाँ से चला जाना चाहिए।'
वह अवसर देखकर सभा से निकल गया । रास्ते में भी किसी ने उसे मान नहीं दिया, मानो कोई पहचानता तक न हो । घर आया तो वहाँ भी यही हालत । नौकरों तक ने उसको कोई मान नहीं दिया और न किसी प्रकार से आदर-सत्कार किया। इससे अमात्य को गहरा आघात लगा और उसने निर्णय किया कि, ऐसे अपमानपूर्ण जीवन से तो मर जाना अच्छा।
उसने अपने कमरे में जाकर दरवाजा बन्द कर लिया और गले पर जोर से तलवार फेरने लगा, लेकिन उसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ। इसलिए, उसने मरने का दूसरा- उपाय किया। उसने तालपुट-विष खा लिया। पर,