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आत्मतत्व-विचार (६) प्रमत्त संयत गुणस्थान 'छठे गुणस्थान में साधुता है-यह तो आप सब जानते है। पर, इसका नाम 'प्रमत्त सयत' क्यों पड़ा, यह समझना है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से प्रमत्त 'संयत' की अवस्था विशेष 'प्रमत्त संयत' गुणस्थान है । यहाँ संयत मूल शब्द है और प्रमत्त उमका विशेषण है। इसलिए, पहले 'सयत' शब्द पर विचार करें। ___ जो आत्मा नवकोटि से यावजीव सामायिक का 'पञ्चक्खाण' करे
और पॉच महाव्रत धारण करे; वह सर्वविरति में मानी नायेगी और उसे सयत कहा जायेगा। साधु, मुनि, अनागार आदि उसके पर्यायवाची शब्द है।
तीन योग और तीन करण से 'पच्चक्खाण' करे तो नवोटि 'पच्चरवाण' होते हैं । तीन योग अर्थात् मन, वचन और काया । तीन करण अर्थात् करना, कराना और अनुमोदना । इन दोनों के योग से नवकोटि सामायिक का 'पच्चरखाण होता है । वह इस प्रकार
(१) मन से पाप नहीं करना (२) वचन , " " " (३) काया , , " " (४) मन ,, ,, कराना (५) वचन ,, " " " (६) काया , , , , (७) मन ,, ,, अनुमोदना (८) वचन " " " " (९) काया , , , ,
श्रावक करे नहीं, कगये नहीं, पर वह अनुमोदना मे नहीं बच सकता, इमरि उमे पहली । कोटि का ही मामायिक होता है। आप सामायिक