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आत्मतत्व-विचार
मेरी वेदना कम होती गयी और सुबह होते-होते मैं बिलकुल स्वस्थ हो गया।"
"मुझे एकाएक अच्छा हुआ देखकर सारा कुटुम्ब अत्यन्त हर्पित हुआ । पिता समझे कि, उनका पैसा खर्चना सार्थक हो गया। माता समझी कि, उसको मनौतियाँ सफल हो गयीं। भाई समझे कि, उनका श्रम फल गया। बहने समझीं कि, उनके हृदय के आशीर्वाद फले । पत्नी समझी कि उसकी प्रार्थना फली और मित्र समझे कि उनकी दौड़धूप काम आ गयी। तब मैंने सबको शात करके कहा-'मुझे नया ही जीवन प्राप्त हुआ है और वह मेरे शुद्ध सकल्प का फल है। कल रात मै यह सकल्प करके सोया कि, अगर एक बार इस वेदना से मुक्त हो जाऊँ तो क्षान्त, दान्त, निरारभी बनेगा । इसलिए, आप सब लोग मुझे अनुजा दें। मुझे अपनी प्रतिज्ञा का पालन तुरन्त करना है।
"इन शब्दों के सुनते ही सब अवाक रह गये और उनकी ऑखो में ऑसू आ गये । वे तरह-तरह की युक्तियो से सार का त्याग न करने की विनती करने लगे। लेकिन, मैंने एक ही जवाब दिया-'अब इस मोहमय संसार में रहकर मैं जरा भी आनन्द नहीं मना सकता।' आखिर सब कुटुम्बीजनों ने मुझे इष्ट मार्ग पर जाने की अनुमति दे दी और मैंने सयममार्ग धारणकिया। ___ 'हे राजन् ! यह आत्मा स्वय ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष-जैसा दुःखदायी है और कामधेनु और नन्दनवन के समान सुखदायी है। आत्मा स्वय ही सुख-दुःख का कर्ता है और सुख दुःख का भोक्ता है। अगर सुमार्ग पर चले तो यह सुखदायी है और कुमार्ग पर चले तो शत्रुतुल्य दुःखदायी है। इसलिए आत्मा का दमन करना और उसे सुमार्ग पर चलाना परम सुख चाहनेवाले मुमुक्षुओं का कर्तव्य है।"
"सच्चा श्रमणधर्म पालनेवाला अन्य जीवो का नाथ ( रक्षक ) बनता है और अपना भी नाथ ( रक्षक) बनता है। इसलिए हे राजन् ।