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गुणस्थान
४५१ जा गंठि ता पढम, गंठि समइच्छलो भवे वीयं । अनियट्टीकरणं पुण, सम्मतपुरक्खडे जोवे ॥
--ग्रन्थि समीप आने तक की क्रिया को प्रथम ययाप्रवृत्तिकरण समझना चाहिए, ग्रन्थि का भेद करे तब दूसरा अपूर्वकरण समझना चाहिए; और सम्यक्त्व के सम्मुख हो तब तीसरा अनिवृत्तिकरण समझना ।
उसके बाद वह अन्तःकरण की क्रिया करता है। उसमे पहली स्थिति म मिथ्यात्व के दलियो का वेदन करता है, अर्थात् वह मिथ्यात्वी होता है । पर, अन्तर्मुहूर्त के बाद उसे मिथ्यात्व के दलियों का वेदन नहीं करना पड़ता, इसलिए वह औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। उस क्रिया को शास्त्रकारो ने दावानल के समान बताया है-जैसे कोई दावानल प्रकट हुआ हो और वह क्रमग. आगे बढता जाये, पर पहले जला हुआ प्रदेश आये या ऊसर भूमि आये, तब वह वुझ जाता है, वैसे ही मिथ्यात्व-रूपी दावानल भी अन्तःकरण की दूसरी स्थिति प्राप्त होने पर मिथ्यात्व के दलियों के वेदन के अभाव में बुझ जाता है। ___ इस सम्यक्त्व का कालमान अन्तर्मुहूर्त का है। उसमें जघन्य एक समय बाद और उत्कृष्ट ६ आवलिका के बाद किसी जीव को अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय हो तो वह सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व की ओर चल पड़ता है। उस समय उसे सम्यक्त्व का कुछ स्वाद होता है। एक व्यक्ति दूधपाक खाये और वमन में वह निकल जाये तो वमन के बाद भी उस दूधपाक का स्वाद आता ही रहता है। उसी के समान इस गुणस्थान की स्थिति समझनी चाहिए।
चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान से लगाकर ग्यारहवें उपशातमोहगुणस्थान तक के जो जीव मोह के उदय से गिरते है, वे इस गुणस्थान