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आत्मतत्व-विचार
इस उत्तर से मगधराज को आश्चर्य हुआ। उन्होंने, कहा-"आपसरीखे प्रभावशाली पुरुष अनाथ हो यह तो बड़ी अजीब बात है ! अगर अपने इसी के लिए संयम-मार्ग लिया हो तो मैं आपका नाथ होने को तैयार हूँ। आप मेरे राजमहल में पधारे और वहाँ सुख से दिन गुजारें ।" ___ मगधराज के ये शब्द सुनकर मुनिवर के मुख पर मुस्कान छा गयी। उन्होंने कहा- "हे राजन् । सभी अपने अधिकार की चीज दूसरे को दे सकते है। चाँद चाँदनी दे सकता है, सूर्य गर्मी दे सकता है, नदी जल
और वृक्ष फल दे सकते हैं । नाथ होना तेरे अधिकार में नहीं है, इसलिए तृ मेरा नाथ नहीं हो सकता । तू तो स्वय ही अनाथ हैं !"
ये शब्द सुनते ही मगधराज चमके। ऐसे शब्द तो आज तक किसी ने उनसे कहे नहीं थे। उन्होने अपने क्षत अभिमान को ठीक करते हुए कहा-'हे आर्य ! आपकी बात से जान पड़ता है कि आपने मुझे पहचाना नहीं । मै अग और मगध देश का महाराजा श्रेणिक हूँ। मेरे अधिकार मे हजारों कस्ने और लाखो गॉव हैं। मैं हनारो हाथी-घोड़े और असख्य रथ-सुभटो का स्वामी हूँ। मेरा अन्तःपुर रूपवती रमणियो से भरा हुआ है। मेरे पाँच सौ मत्री है, जिनका प्रधान मेरा पुत्र अभयकुमार है। मेरे हजारों मित्र और सुहृद हैं, जो मेरी हर समय चिन्ता रखते हैं। मेरा ऐश्वर्य अद्वितीय है। मेरी आजा अनुल्लंघनीय है। ऐसी ऋद्धि-सिद्धि और ऐसा अधिकार होते हुए भी में अनाथ कैसे हूँ ??
मुनिवर ने कहा-"राजन् ! मै जानता हूँ कि, तू अग और मगध का अधिपति महाराजा श्रेणिक है । तेरे ऐश्वर से भली-भाँति परिचित हूँ। फिर भी कहता हूँ कि, नाथ होना तेरे अधिकार में नहीं है, इसलिए तू मेरा नाथ नहीं हो सकता । तू स्वय ही अनाथ है।"
मगधराज समझ गये कि इन वचनो को मुनिराज ने बेसमझे या उतावली के कारण प्रयोग नहीं किया। उन्होने कहा- "हे महात्मन् ।