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गुणस्थान
(१) औपशमिक, (२) क्षायोपशमिक और (३) क्षायिक |
जिस जीव को अनतानुवधी चार कपाय और मिथ्यात्व मोहनीय सत्ता में हो, परन्तु प्रदेश और रस से उसका उदय न हो, उसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है | हम प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश के विषय में एव कर्म की सत्ता और कर्म के उदय के विषय में समुचित रूप में स्पष्टीकरण कर चुके हैं, इसलिए आपको यह वस्तु समझने में कठिनाई नहीं होगी ।
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किसी आदमी के सर पर बड़ा ऋग हो और लेनदार उसके लिए कड़ा तकाजा करते हों, तो उस आदमी की परेशानी की हद नहीं होती । पर, वे लेनदार किसी प्रकार आने बन्द हो जायें तो उस आदमी को कितनी राहत मिलती है । औपशमिक सम्यक्त्व में भी लगभग ऐसी ही स्थिति होती है । अनतानुवधी चार कषाय और मिथ्यात्व मोहनीय सत्ता मे रहते हैं, परन्तु प्रदेश या रस से उनका उदय नहीं होता, इसलिए आत्मा को सम्यक्त्व होता है । यह सम्यक्त्व कर्मों के उपशम से प्राप्त हुआ होने के कारण औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है ।
जिस जीव को मिध्यात्व मोहनीय सत्ता में है, सम्यक्त्व मोहनीय
( पृष्ठ ४५४ की पाद टिप्पणि का शेपाश )
मम्यक्त्व है । वह नैसर्गिक अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न होनेवाला और औपदेशिक अर्थात् गुरु आदि की हितशिक्षा से उत्पन्न होनेवाला ऐसे दो प्रकार का है। क्षायिक क्षायोपशमिक और औपशमिक ये उसके तीन प्रकार है। इनमें सास्वादन जोड दें तो चार प्रकार होते हैं और उसमें वेदक जोड दें, तो पाँच प्रकार होते हैं । इन पांच प्रकारों के नैसर्गिक और श्रीपदेशिका ऐसे दो दो प्रकार गिनें तो सम्यक्त्व के दस प्रकार हो जाते है ।
कुछ लोग कारक, रोचक और दीपक के भेद से भी मानते हैं, परन्तु इनमें दीपक सम्यक्त्व तो मात्र उपचार से वास्तव में यह सम्यक्त्व नही है ।
सम्यवत्व के तीन प्रकार सम्यक्त्त्व कहलाता है ।