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गुणस्थान ____ जो जीव सम्यक्त्ववाला है, सम्यग्दर्शन से युक्त है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है । ऐसा जीव अठारह दोष से रहित, रागद्वेष का परमविजेता अरिहंत भगवत को देव मानता है, त्यागी महाव्रतधारी माधु को गुरु मानता है और सर्वज प्रणीत दान-शील-तप-भावमय धर्म को सच्चा धर्म भाता है । वह जिनवचन मे शका नहीं करता, शास्त्रविहित शुद्ध क्रिया-अनुष्ठान के फल में सशययुक्त नहीं होता, मिथ्यात्वियों की प्रशसा नहीं करता और मिथ्यात्वी से परिचय नहीं बढाता । वह जीव और अजीव को प्रथम मानता है, आत्मा को कर्म का कर्ता और कर्म फल का भोक्ता मानता है तथा पुरुषार्थ से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, ऐसी दृढ मान्यता रखता है। उसे सत्य के प्रति दृढ प्रीति होती है और असत्य के प्रति उतनी ही दृढ अनगम (अरुचि ) होती है। वह आनीविका के लिए आरंभ-समारभ नहीं करता। दिल मे पाप का डर रखता है । और, कोई भी प्रवृत्ति निर्दयता के परिणाम से नहीं करता। ___ सम्यक्त्व के आये बिना कोई विरत नहीं बन सकता-अर्थात् विरत बनने के लिए यह अवस्था प्राप्त करनी आवश्यक है।
औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम से भी अधिक है। इस प्रकार ये दोनों सम्यक्त्व सादि-सान्त है, जबकि क्षायिक सम्यक्त्व एक बार आने के बाद फिर जाता नहीं । अतः उसकी स्थिति सादि-अनन्त है ।
चारों गति के जीव सम्यक्त्व पा सकते है पर, जो सिद्ध जीव हैं। वे सम्यक्त्व के अधिकारी हैं। जिसे एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श हुआ उनका ससार आधे पुद्गलपरावर्तन-काल से अधिक नहीं है यह बात हम पहले बता आये हैं । जघन्य से तो यह अन्तर्मुहूर्त में भी ससार का छेदन करके मोक्षगामी बन सकता है, और ज्यादा-से-ज्यादा अपार्ध पुद्गल-परावर्तन-काल है। साधु पुरुषों का सग और उनका उपदेश सम्यक्त्व की प्राप्ति में प्रबल