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आत्मतत्व-विचार
मुख होती हैं, इसलिए उन्हें मोक्ष की बात अच्छी नहीं लगती और उसके साधनों के प्रति उनमें एक प्रकार का तिरस्कार भाव होता है।
यहाँ प्रश्न होगा कि 'जहाँ मिथ्यात्व अर्थात् 'श्रद्धा का विपरीतभाव' है, वहाँ गुणस्थान कैसे हो सकता है ? इसलिए इसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। व्यक्त मिथ्यात्वी में 'श्रद्धा का विपरीत भाव' अवश्य होता है, पर उसमे आत्मा के ज्ञानादि गुणों का एक अश मे विवास विद्यमान रहता है। इसलिए, उसे गुणस्थान माना गया है। गिनती-पहाड़े सीखनेवाले में विद्या का भला क्या संस्कार माना जा सकता है ? फिर भी, हम उसे विद्यार्थी कहते हैं। यहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग भी इसी प्रकार समझना चाहिए । आगमों मे कहा है किसव्व जीयाण मकखरस्स अणंतो भागो निच्यं उघाड़ियो चिट्टइ। जाई पुण सोवि श्रावरिजातेणं जीतो अजीवत्तणं पाऽणिज्जा ॥ -'सब जीवों को अक्षर का यानी ज्ञान का अनन्तवॉ भाग निरन्तर खुला रहता है। अगर वह भी रुक जाये तो जीव अजीवपने को प्राप्त हो जाये ।'
मिथ्यात्व पॉच प्रकार का है। यह बात पहले के व्याख्यानों में बता दी गयी है। वे पाँच प्रकार हैं-(१) अभिग्रहिक मिथ्यात्व, (२) अनभिग्रहिक मिथ्यात्व, (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व, (४) सागयिक मिथ्यात्व और (५) अनायोगिक मिथ्यात्व ।।
मिथ्यादर्शन को पकड़े रहनेवाला और पौद्गलिक सुखों में अधिक रति रखनेवाला जीव अभिग्रहिक मिथ्यात्वी है। सब धर्म अच्छे है, सब दर्शन सुन्दर हैं, ऐसा माननेवाले को अनभिग्रहिक मिथ्यात्व होता है। सब दर्शनों और धर्मों को अच्छा कहेंगे तो उदारहृदय और महान् कहलायेंगे यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। अच्छे बुरे का विवेक न होना वस्तुत मूढ़ता है। उसे उदारता कैसे कह सकते हैं ? और, बड़े कहलानेवाले लोगों