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आठ करण
के विषय में और अंशतः नित्त कर्मबन्ध के अन्तर्गत समझना चाहिए ।
द्ध और पृष्ट कर्मबन्ध में अध्यवसाय के बल से फेरफार अवश्य हो सकते हैं और नित्त कर्मबन्ध में भी अव्यवसायों के बल से स्थिति और रस की न्यूनाधिकता उत्पन्न की जा सकती है।
अगर, पूर्ववद्ध कर्म मे कुछ परिवर्तन न हो सकता हो, तो आत्मा कर्म के शतरन का प्यादे ही बन जाए और कर्म जैसे चलायें वैसे चलना पड़े । फिर पुरुषार्थ के लिए कोई गुजाइश ही न रहे, क्योंकि आर चाहे जैसा प्रयास करें, तो भी जो फल मिलनेवाला हो व्हो मिले और वह जब मिलनेवाला हो तभी मिले। तो फिर व्रत, नियम, जप, तप, ध्यान, आदि करने का तात्पर्य क्या ? इसलिए तथ्य यह है कि, आत्मा पुरुषार्थं करे और शुभ अध्यवसायो का बल बढाये तो पूर्वबद्ध कर्मों के किले की दीवाल में दरारें डाल सकता है और चाहे तो उसका ध्वस भी कर सकता है । इस प्रकार मनुष्य को व्रत, नियम, जप, तप, ध्यान आदि के मार्ग से आगे बढ़ना है ।
जिसके द्वारा क्रिया सधे, उसे 'करण' कहते है । जैसे कोई बाण से फल गिरा दे, तो बाण को 'करण' कहेंगे । अथवा जैसे हथौड़े से सोना टीपने की क्रिया साधी जाती है, उसमे हथौड़े को 'करण' कहेंगे । इन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए व्यवहार में इन्हें भी करण कहा जाता है। यहाॅ कर्म-सम्बन्धी विभिन्न क्रियाऍ योग और अध्यवसाय के बल द्वारा साधी जाती हैं, इसलिए योग और अध्यवसाय के चल को करण कहा जाता है ।
यद्यपि योग और अध्यवसाय का बल ही करण है और वह एक ही प्रकार का है, फिर भी उसके द्वारा विभिन्न आठ क्रियाएँ सिद्ध होती हैं । इसलिए उन्हें अलग-अलग आठ नामो से पहचाना जाता है। गेहूँ का आटा एक ही प्रकार का होता है, पर यदि उससे तरह तरह की चीजें बनायी जायें तो उन्हें विभिन्न नामो से पुकारा जाता है । अथवा एक ही
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