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पाठ करण (४) उद्दवर्तना-करण, (५) अपवर्तना-करण, (६) संक्रमण करण, (७) उदीरणा-करण और (८) उपश्यना-करण ।
जिसके द्वारा कार्माणवर्गणा का आत्मप्रदेशो के साथ बन्धन हो वह वन्धनकरण है।
पहले गाँठ ढीली लगी हो, पर बाद मे खींचने से मजबूत हो जाती है, उसी तरह पहले नीरस भाव से बॉधने में कर्म ढोले बँधे हों, पर बाद मे उनकी प्रशंसा की जाये, बड़ाई हॉकी जाये तो वह कर्म मजबूत हो नाता है और निधत्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार जो बद्धकर्म को निधत्त करता है वह निधत्तकरण है।।
जो कर्म निधत्त हो गया उसकी स्थिति और रस अध्यवसायों द्वारा घटाये जा सकते हैं, पर उसकी उदीरणा या उसका सक्रमण नहीं हो सकता। इससे यह समझना चाहिए कि, कोई भी अशुभ कर्म बॉबने के बाद उसकी प्रशसा नहीं करनी चाहिए अथवा तत्सम्बन्धी बड़ाई नहीं करनी चाहिए । 'देखा? मैंने उसे कैसा झाँसा दिया ! 'उसे मैंने खूब बनाया । वह मुझे हमेशा याद रखेगा !' 'हमारे सामने किसी की चालाकी नहीं चल सकती । सबको ठीक कर देंगे !' 'वह इसी लायक है ! वह तो मार खाकर ही दुरुस्त होगा ।' आदि वचनों में पाप की प्रशसा और अपनी बड़ाई है, इसलिए ऐसे वचन कभी नहीं बोलने चाहिए। अगर पाप हो गया हो तो उसके लिए पश्चात्ताप करना चाहिए, खिन्न होना चाहिए। उसकी पुष्टि तो करनी ही नहीं चाहिए।
किसी कर्म के बाँधने पर अत्यन्त उल्लास हो, प्रसन्नता हो, उसकी बारंबार पुष्टि करे तो वह कर्म निकाचित बन जाता है। फिर उस पर किसी 'करण' का असर नहीं होता। इस प्रकार स्पृष्ट, बद्ध या निधत्त कर्म को निकाचित करनेवाला करण निकाचितकरण है।
जिसने जिन-नामकर्म उपार्जन किया हो, वह जिन-अरहंत तीर्थकर