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आत्मतत्व-विचार
मिले हैं और-सर्वज्ञप्रणीत धर्म मिला है। ऐसे समय पर कर्म को भोग कर परिणाम नहीं कायम रखेंगे, तो इन शुभ संयोगों के न रहने पर परिणामो को किस प्रकार कायम रखा जा सकेगा ?
अनुक्रम से उदय मे आये हुए कर्मों को चारों गतियों के जीव भोगते हैं; पर मनुष्य भव मिलने पर, धर्म पाने पर, धर्माचरण करने की शक्ति मिलने पर उदय में न आये हुए कर्मों को उदय में लाकर तोड़ डालने के प्रयास में ही मनुष्यभव की सार्थकता है। महापुरुष कर्म की उदीरणा करके उन्हें भोग लेते हैं और मोक्ष मार्ग को निष्कंटक बना लेते हैं।
योग और अध्यवसाय के जिस बल के कारण कर्म शात पड़े रहते है; अर्थात् उनमें उदय-उदीरणा नहीं होती; उमे उपशमनाकरण कहते हैं । यह जलते अंगारे पर राख डाल देने की तरह है। इस हालत मे कर्म की उद्वर्तना, अपवर्तना एव कम का सक्रमण हो सकता है।
जो कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हो चुके हैं, उन पर करण नहीं लगता, शेष सब पर लगता है। जैसे किसी यन्त्र के सब भाग एक साथ काम करते हैं, वैसे ही सब करण साथ काम करते हैं। आत्मा समय-समय पर कर्म ग्रहण करता है, इसलिए बन्धनकरण चालू ही रहता है। उस समय ढीले कर्म मजबूत बन रहे होते हैं; मजबूत और मजबूत हो रहे होते हैं, यानी निधत्तकरण और निकाचनाकरण भी चालू ही रहता है। उसी समय कुछ कर्मों की स्थिति और रस में कमी वेशी भी होती है; यानी उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण भी चाल रहता है। उसी वक्त कर्म की सजातीय प्रकृतियाँ बदलती होती है, इसलिए सक्रमणकरण भी अपना काम करता ही रहता है। उस वक्त कर्म का उदय या उदीरणा चालू रहती है
और कुछ कम गात हो रहे होते हैं, इसलिए उदीरणाकरण और उपशमनाकरण भी कार्यशील रहते हैं।
जब तक आत्मा वीतराग न बने तब तक उसमें शुभाशुभ प्रवृत्ति चालू ही रहती है। शुभ प्रवृत्ति बढाना और अशुभ प्रवृत्ति घटाना यह