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कर्मबंध और उसके कारणों पर विचार
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दुःख का है। उसमें दुःख की स्थिति तो मात्र इक्कीस हजार वर्षों की ही है । इसलिए, मनुष्य में प्रायः साता का उदय रहता है ।
युगलियों के काल में पंचेन्द्रिय जानवर सुखी रहते हैं; पर एकेन्द्रिय आदि दुःखी रहते हैं । तीर्थंकर भगवान् के जन्म के समय नारकी जीव भी सुख का अनुभव करते है ।
पर, याद रहे कि, सातावेदनीय सुख सासारिक सुख है और कर्म - जन्य है | इसलिए खतरनाक है । यह सुख हमे ठगता है । यदि इस सुख में लिप्त होकर धर्म को भूल गये; तो ससार-सागर में बह गये !! पुण्यानुबंधी पुण्य के कारण सासारिक सुख भी मिलते है और वे धर्माराधन में सहायक होते है और मुक्ति के निकट ले जाते हैं ।
मयगसुन्दरी ने धर्म की टेक रखी, तो उसकी विजय हुई; श्रीपाल राजा का कोढ़ मिटा और सिद्धचक्र की श्राराधना का दुनिया में प्रभाव वढा | श्रीपाल ने पूर्वजन्म मे गुरु की आशातना करके कोढ भोगने का कर्म वा था । वह कर्म ढीला होने के कारण, एक जन्म में भुगत गया और उसका कोढ चला गया । उसी प्रकार पूर्व भव मे धर्म की आराधना थी, इसलिए इस भव में सिद्धचक्र की आराधना हुई और उसे सब प्रकार से साता का अनुभव हुआ ।
आयुष्य कर्म-बन्धन के विशेष कारण
क्रोध और मान कड़वे कषाय हैं, माया और लोभ मीठे कषाय हैं । कषायो के तीव्रोदय के समय या आत्मा के रौद्र परिणामी होने के समय, आयुष्य-कर्म का बन्ध होगा, तो नरक आयुष्य का होगा । परिग्रह में महाराग के समय का आयुष्य-बन्ध भी नरक का होता है। नरक सात प्रकार के हैं -- नारकी का आयुष्य कम-से-कम दस हजार वर्षों का होता है । उसमे एक भी दिन की कमी नहीं होती ।
मानव-जीवन में कभी सर दुखता है, बुखार आता है, या और कोई