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कर्मबन्ध और उसके कारणों पर विचार
४१७ से छत्रपति शिवाजी छूट गये तो क्या फिर उसके चगुल मे आये ? इतनी दूर न जाना हो तो सुभाष बाबू को देखिए ! वह अग्रेजों के हाथ से जो छूटे तो फिर उनके हाथों में नहीं आये।
वे चार घातिया कर्म हैं जानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, और ये क्रमशः आत्मा के ज्ञान, दर्शन, आनन्द और गक्ति गुण का घात करते हैं।
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण
जो आत्मा गुरु, सूत्र और अर्थ या दोनों के निह्नवपने में पड़ता है, तो वह ज्ञानावरणीय और दर्शनावर्णीय कर्म को विशेष परिमाण में बाँधता है। जो जानी या गुरु से ईर्ष्या करे, उनकी निन्दा करे, अपमान करे या विरोधी वर्तन रखे तो वह भी जानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का विशेष बन्ध करता है।
किसी के जान उपार्जन करने मे, स्वाध्याय करने में, अन्तराय डाला जाये, तो भी ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का विशेष अन्ध होता है। आजकल तो यह हालत है कि, पास में पाठशाला चलती हो या कोई सामायिक लेकर बैठा हो, तो भी उसके पास जोर-जोर से बातें करने या कहकहाबाजी करने में लोगों को जरा भी लजा नहीं लगती। यह बहुत ही बुरा संस्कार है और कर्मबन्धनकारी है।
पुस्तक, तख्ती, बस्ता आदि ज्ञान के साधनों को पटकना, ठोकर मारना, लापरवाही से जहाँ-तहाँ पड़े रहने देना, थूक लगाना या कोई भी अशुचिमय पदार्थ लगाना ये सब क्रियाएँ ज्ञान के साधनों की आशातना हैं । इनका आपको वर्जन करना चाहिए, अन्यथा आप ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों को बॉधेंगे और परभव में मूढता, जड़ता, मूकत्व आदि द्वारा दण्डित होंगे। इसी प्रकार ज्ञान तथा जानी का उपघात, द्वेप करने से और ज्ञानार्जन करनेवाले को अन्तराय करने से ज्ञानावरणीय और
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