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आत्मतत्व-विचार सन्मार्ग का नाश करने से दर्शनमोहनीय कर्म बंधता है । सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र का नाश करने की देशना भी सन्मार्ग का नाश करना कहलायेगा। वैसा करनेवाला दर्शनमोहनीय कर्म बाँधेगा। इसलिए, किसी भी धर्म-विरुद्ध प्रवृत्ति मै भाग न लेने का निश्चय करना चाहिए।
देव-द्रव्य का अपहरण करनेवाला भी, दर्शनमोहनीय कर्म बांधता __ है। देव से मेरा तात्पर्य अरिहतदेव, वीतराग परमात्मा से है। उनकी
भक्ति के निमित्त से जो कुछ द्रव्य अर्पण किया जाता है, वह देव-द्रव्य है । देव-द्रव्य लिया नहीं जा सकता, उसे लेना चोरी है। और, इसलिए देवद्रव्य लेना इस जीवन में और भावी जन्मों में दुर्दशा का कारण है। सागर सेठ की कथा सुनिए, यह बात अच्छी तरह समझ में आ जायेगी।
सागर सेठ की कथा साकेतपुर नाम का गॉव था। उसमें सागर नामक एक श्रावक था। वह अरिहत-परमात्मा की बड़ी भक्ति करता था। उसे सुश्रावक समझ कर नगर के दूसरे श्रावकों ने कुछ देव-द्रव्य सौंपा और कहा-"मदिर का काम करनेवाले बढई आदि को यह द्रव्य देते रहियेगा।"
हाथ मे द्रव्य आया कि, सागर सेठ को लोभ हुआ। उसने उस द्रव्य से धान्य, गुड, घी, तेल, कपडा आदि बहुत-सी चीजें खरीदी और चढई आदि को नकद पैसे देने के बजाय उन चीजों को महंगे भाव से दिया । उससे जो लाभ हुआ उसे अपने पास रखा। इस तरह उसे एक हजार काकणी का लाभ हुआ। ( काकणी = एक पुराना सिक्का)। उस कृत्य से उसने जो घोर कर्म बाँधा, उसकी आलोचना किये बिना ही वह मरण को प्राप्त हुआ। मरकर समुद्र में जलमनुष्य हुआ। वहाँ समुद्र से रत्न निकालनेवालों ने उसे पकड़ लिया और उसकी अडगोलिका प्राप्त करने के लिए उसे लोहे की चक्की में पीसा । ( वह गोलिका पास हो तो जलचर