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आत्मतत्व-विचार चमत्कारिक असर होगा और वे जरूर शात हो जायेंगे। इससे आप और वह, दोनों, कर्मवधन से बच जायेंगे। इसके बजाय यदि आप क्रोध का मुकाबला क्रोध से करें और मान के सामने ज्यादा अकड़ बतायें तो आपको भी कर्मों का सन्निपात मानना होगा।
दूसरा गुर यह है कि, ससार के सत्र प्राणी कर्म के अधीन हैं । उनसे अपराध हो ही जायेगा । जैसे अपने अपराध को मैं निभा लेता हूँ, वैसे ही दूसरे के अपराध को भी निभा लेना चाहिए, कारण कि वे मेरे भाई हैं । विश्व के तमाम प्राणियों को अपना भाई मानना चाहिए । यही विश्वचन्धुत्व की भावना है और मैत्री-भावना की साधना के लिए वह बहुत उपयोगी है। अपने भाइयों को दुश्मन मानकर उनका मुकाबला करना ठीक नहीं है। सच्चे दुश्मन तो कर्म है, सामना तो उनका करना चाहिए ।
एक तीसरा गुर भी है। यह मानना चाहिए कि, कोई किसी का कुछ नहीं बिगाड सकता । अगर हमारा कुछ बिगड़ रहा है तो उसके कारण हम स्वय हैं । बाकी सब तो उसके केवल निमित्तमात्र हैं। इसलिए, उन पर किसी प्रकार का रोष क्यों किया जाये ? अगर वे बुरा कर रहे है तो वे उसका बुरा फल भोगंगे, लेकिन मुझे उनको दंड देकर विशेष कर्मबन्धन नहीं करना चाहिए।
ऐसे-ऐसे शुद्ध विचारों से काम ले तो चाहे-जैसी भयकर कषायें भी आसानी से जीती जा सकती है । कषाय अणुबम्ब से भी अधिक हानिकर है ।
जं अजिअं चरितं, देसूणाए अ पुन्धकोडीए।
तं पि कषाइयचित्तो, हारेई नरो मुहुत्तेणं ॥
-कुछ कम करोड़ पूर्व तक चारित्र-पालन करके जो कमाई की हो, उसे कषाय के उदय से आदमी दो घड़ी में हार जाता है ।