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कर्मवन्ध और उसके कारणों पर विचार
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रहती है । अगर, गृहस्थ स्थावर की छूट न रखे, तो उसका जीवन व्यवहार न चले। फिर भी, इस छूट को वह हिचकचाहट से स्वीकार करता है और उसका उपयोग जहाँ तक हो सके कम करता है - अर्थात् वह स्थावर की 'जया' करता है |
त्रस - जीवों की हिंसा दो प्रकार से होती है— एक सकल्प से दूसरी आरभ से । किसी प्राणी को इरादापूर्वक मारना सकल्पी हिंसा है । और, आजीविका के निमित्त से खेती आदि करने में जो हिंसा होती है, वह आरभी हिंसा है । गृहस्थ सकल्पी हिंसा का त्यागी होता है । उस व्रती को चाहिए कि आरभी हिंसा की जयना करे ।
सकल्पी हिंसा दो प्रकार की है— मापराध की और निरपराध की । इनमें से निरपराधी हिंसा का त्याग रहता है, सापराधी की हिंसा की छूट रहती है । आक्रमणकारी से लड़ना पडे और उसकी हिंसा करनी पड़े तो वह सापराधी को दड देना है, परन्तु व्रतधारी उसकी जयना करें ।
गृहस्थ को आजीविका के लिए गाय, बैल, घोड़ा, ऊँट आदि जानवर पालने पड़ते है और उन्हें बाँधना और मारना भी पड़ता है । पुत्र-पुत्री आदि को भी सुशिक्षा के लिए ताड़न-तर्जन करना पड़ता है । यह निरपराधी त्रस जीवों की सापेक्ष हिंसा है और गृहस्थ को उसकी छूट होती है । निर्दोष प्राणी को निर्दयतापूर्वक मारकर और किसी प्रकार से पीड़ा पहुँचाना निरपेक्ष हिंसा है और उसका इस प्रतिज्ञा द्वारा त्याग होता है । यद्यपि साधु की अहिंसा के सामने यह अहिंसा अत्यल्प है, फिर भी चहुत उपयोगी है | इसमें हिंसा की छूट केवल अपराधी को मारने की है इस छूट का उपयोग करने मे व्रतभंग नहीं है, पर पाप तो लगता ही है । यह नहीं चाहिए कि, छूट का उपयोग करते ही रहें, बल्कि यथासभव छूट के पाप से भी बचना चाहिए । अब यह बताया जाता है कि, इस प्रतिज्ञा से क्या लाभ होता है । निरपराधी की निरपराधियों को श्रमदान मिल जाता है । इस जगत् में आपके अपराधियों
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हिंसा के त्याग से सब