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श्रात्मतत्व-विचार
(१२) कलह (१३) अभ्याख्यान ( आल चढाना ) (१४) पैशुन्य ( चुगली खाना )
(१५) रति अरति ( हर्प-शोक )
(१६) परपरिवाद ( परनिन्दा, दूसरे का अवर्णवाद करना ) (१७) मायामृपावाद ( प्रपच करना )
(१८) मिथ्यात्वशल्य (विपरीत विश्वास, विपरीत श्रद्धा ) अपेक्षाविशेप से कार्यकारण का विचार करें, तो इन अठारह पाप स्थानकों का समावेश प्रथम पाँच पाप स्थानको में हो जाता है-पाप का मुख्य प्रवाह हिंसा - झूठ - चोरी - कुशील- परिग्रह में से ही बहता है ।
विरति का अर्थ पाप का त्याग है । हेय वस्तु को अपनी इच्छा से छोड़ देना त्याग है । विवश होकर छोडने को त्याग नहीं कहते । मुच की कथा इसे स्पष्ट कर देगी ।
सुबंधु की कथा
भारत के इतिहास की यह एक सत्य घटना है । सम्राट् चन्द्रगुप्त के बाद उसकी गद्दी पर बिन्दुसार आया । नन्द राजा का संबंधी सुबधु उसका प्रधानमंत्री हुआ । सुबंधु चाणक्य से द्वेष करता था । उसने अनेक युक्तियों द्वारा बिन्दुसार का मन चाणक्य से फिरा दिया । चाणक्य सारी परिस्थिति समझ गया । उसने अपनी मिल्कियत की व्यवस्था करके अनशन शुरू कर दिया । परन्तु, इस प्रकार जीवन का अन्त करने से पहले उसने एक डिब्बी तैयार की और उसे अपनी पिटारी में रख ली । चाणक्य के मर जाने के बाद, सुबधुने उसका घर राजा से माँग लिया । राजा ने मॉग मंजूर करली और सुबंधु चाणक्य ' के घर में रहने लगा | वहाँ उसने हर चीज की छानबीन शुरू कर दी। उसने उस पिटारे को भी खोला । उसके अन्दर एक के बाद एक सन्दूकची