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आत्मतत्व-विचार अपर्याप्तनामकम से जीव अपने लिए प्राप्त करने योग्य पर्याप्ति पूरी नहीं कर सकता । पर्याप्तनामकर्म से जीव अपने लिए प्राप्त करने योग्य पर्याप्ति पूरी कर सकता है। पर्याप्ति ६ है। उनकी जानकारी पहले दी जा चुकी है। हर जीव आहारपर्याति, गरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति तो सम्पूर्णतः पूरी करता ही है। उसकी शेष पर्यातियो में भजना होती है। इसीलिए जीव के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद होते हैं।
साधारणनामकर्म से अनत जीवों का एक साधारण गरीर होता है और प्रत्येकनामकर्म से हर एक जीव को अपना स्वतंत्र शरीर होता है।
अस्थिरनामकर्म से अपने स्थान पर रहनेवाले अवयव अस्थिर होते हैं, जैसे कि जीभ, उँगलियाँ, हाथ, पैर, आदि । और स्थिरनामकर्म से अपने स्थान पर रहनेवाले अवयव स्थिर होते है, जैसे कि दात हड्डियों आदि।
अशुभनामकर्म से नाभि के नीचे का शरीर अप्रशस्त होता है; अर्थात् उसके स्पर्श से दूसरे को अप्रीति होती है। और, शुभनामकर्म से नभि के ऊपर का शरीर प्रशस्त होता है अर्थात् उसके स्पर्श से दूसरे को प्रीति होती है।
दुःस्वरनामकर्म से स्वर कर्कश और अरुचिकर होता है और सुस्वरनामकर्म से स्वर मधुर और सुखदायी होता है ।
दुर्भगनामकर्म से जीव सबको अप्रिय लगता है और सुभगनाम कर्म से सबको प्रिय लगता है । ___अनादेयनामकर्म से जीव के वचन दूसरे को मान्य नहीं होते और श्रादेयनामकर्म से जीव के वचन दूसरे को मान्य होते है ।
अयशाकीर्तिनामकर्म से जीव चाहे जितना काम करने पर भी यश ___ या कीर्ति नहीं पाता । और यश-कीर्तिनामकर्म से जीव थोड़ा काम