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कर्मवन्ध और उसके कारणों पर विचार
३८७ इसलिए, वह अपनी क्रियाओ द्वारा कर्मों को ग्रहण करती रहती है और उसका फल भोगकर दुःखी होती रहती है।" ___ यह सुन कर उन महागय ने कहा-'जान-लक्षणवाली आत्मा क्या इतना भी नहीं समझती कि, कर्म मेरे कट्टर शत्रु हैं, इसलिए मैं उन्हे ग्रहण न करूँ ?
उक्त सज्जन का मूल प्रश्न सामान्य था; पर उस पर खूब चर्चा हुई। इस तरह चर्चा नमती रहे और प्रश्न पूछे जाते रहें तभी अनेक-विध भ्रमो का निवारण हो सकता है और सत्य का प्रकाश मिल सकता है। लेकिन, गुरु के पास आते रहो और उनका पाद-सेवन करते रहो तो ही इस प्रकार का लाभ मिल सकता है । लोक-लाज से गुरु के दर्शन के लिए आओ और जल्दी-जल्दी वन्दन करके चलते बनो, तो इससे ऐसा लाभ कैसे मिल सकता है ? पहले के श्रावक तत्त्वचर्चा मे खून रस लेते थे और गुरु से सूक्ष्म प्रश्न पूछते थे। गुरु को उन प्रश्नों का उत्तर देने मे आनन्द होता था। श्रावक ज्ञानपिपासु हो; तत्त्वरसिक हों तो गुरु को आनन्द क्यों न हो?
मैंने उन महाशय से कहा-'आत्मा ज्ञान लक्षण वाला है और इसलिए वस्तु को जान सकता है, यह बात सच है । लेकिन, शुरू में वह निगोद में होता है, तब घोर अज्ञान से घिरा होता है। उसे अक्षर के अनन्तवें भाग वरावर ही ज्ञान खुला होता है, इसलिए वह किसी प्रकार का विचार कर सकने की स्थिति में नहीं होता। फिर, अकाम निर्जरा के योग से कर्मों का भार ज्यों-ज्यों हलका होता जाता है, त्यों-त्यों ज्ञान की मात्रा बढ़ती जाती है और जब वह मनुष्य-भव को पाता है, तब उसे संप्रधारणसंज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिससे कि वह अच्छे-बुरे का विवेक कर सक्ता है। परन्तु, महानुभाव । आप देखते हैं कि, ऐसी सुन्दर सज्ञा प्राप्त हो जाने पर भी, बहुत से लोग अपना हिताहित नहीं समझते और यदृच्छाप्रवृत्ति करते रहते हैं। जो लोग यह समझ जायें कि, कर्म हमारी निजी