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सत्ताईसवाँ व्याख्यान afer और उसके कारणों पर विचार [ २ ]
महानुभावो !
कर्म का पलग चार पायों का है । वे चार पाये हैं - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ! मिथ्यात्व रूपी पहले पाये के जाने पर वह पलग लगड़ा हो जाता है । निथ्यात्व के जाने से और सम्यक्त्व के आने से सच्ची मान्यता दृढ होती है, जिससे अविरति के जाने में देर नहीं लगती । पेट का मल दूर हो, तो बुखार अपने आप हट जाये, इसीलिए पुराने वैद्य विषम ज्वरो को उतारने के लिए लंघन कराते थे ।
विरति का अर्थ
विरति यानी पाप का त्याग - पाप का पच्चक्खाण | अविरति यानी पाप का अत्याग, पाप की छूट । विरति को व्रत, वियम या चारित्र भी कहते है ।
१. श्री यशोदेव सुरि ने प्रत्याख्यान स्वरूप में कहा है किपञ्चक्खाणं नियमो, श्रभिगो चिरमणं वयं विरई । श्रासवदार निरीहो, निवित्तिएग्गट्टिया सहा ॥
प्रत्याख्यान, नियम, श्रभिग्रह, विरमण, व्रत, विरति श्राश्रव-निरोध और निवृत्ति ये सब समानार्थी हैं ।
श्री हरिभद्र सूरि ने पांचवें प्रत्याख्यान- पचाशक में कहा है कि - 'पञ्चवखाणं नियमो, चरिचधम्मो य होंति प्रगट्ठा ।' प्रत्याख्यान, नियम और चरित्र धर्म ये तीनों शब्द एकाथी है ।