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आत्मतत्व-विचार
उन्होंने कहा- "हाँ कर्म जड़ है, पुद्गल है, यह मै अच्छी तरह जानता हूँ।"
मैंने कहा-"सब पुद्गल कर्म कहलाते हैं क्या ?"
उन्होंने कहा-"सब पुद्ग ठ कर्म नहीं कहलाते, पर उनमे से जितनों की कार्माणवर्गणा बनी होती है, उन्हें कर्म कहते हैं।"
"आपके समझने में भूल है। हमारे चारों ओर सकल लोक में कार्माणवर्गणाएँ ठसाठस भरी हुई हैं, लेकिन वे सब कर्म नहीं कहलाती । आत्मा जितनी कार्माणवर्गणाओं को ग्रहण करके अपने प्रदेशों के साथ मिला दे, उन्हें ही कर्म कहते हैं। यह बात तो आप स्वीकार करेंगे कि, किसी पात्र में चाहे जितना आटा पड़ा हो, उसमे से जितना गुंध जाये
और उसकी रोटी बन जाये, उसे ही रोटी कहेंगे। शेष आटा तो आटा ही कहलायेगा।"
यह बात उन्होंने स्वीकार कर ली। मैने आगे कहा-"आत्मा जितनी कार्माणवर्गणाओ को ग्रहण करता है और अपने प्रदेशों के साथ मिला देता है उन्हें ही 'कर्म' कहते हैं, इसका अर्थ यह है कि, कर्म स्वय आत्मा से नहीं चिमटते, बल्कि आत्मा अपनी क्रिया द्वारा उन्हें अपनी तरफ खींचती है और उसके पुद्गलों को अपने प्रदेशों में मिला देती है। इसे हम व्यावहारिक भाषा मे 'कर्म आत्मा से चिमटे' कहते हैं । आप ट्रेन में सफर करते हुए कहते हैं कि, 'अमुक स्टेशन आया ।' लेकिन वास्तव में वह चल कर आपके पास नहीं आया। आप स्वय गाड़ी में बैठकर उसके पास गये हैं। यहाँ भी ऐसे ही समझना।"
यहाँ उक्त महाशय ने प्रश्न किया-"कर्म तो आत्मा के कट्टर शत्रु हैं, उन्हें वह जानबूझकर अपनी क्रियाओं द्वारा क्यों ग्रहण करती है ? अपने पैर पर आप कुल्हाड़ी तो कोई मूर्ख ही मारेगा !”
मैने कहा- "कर्म आत्मा के कट्टर शत्रु हैं, यह बात सच है; परन्तु अज्ञान आदि दोषों मे लिथड़ी हुई आत्मा इस बात को नहीं समझती ।