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कर्म की शुभाशुभता
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इनमें पहली दो अनेक प्रकार के
गति चार है— देव, मनुष्य, तिर्येच और नरक शुभ है और बाद की दो अशुभ हैं । तिर्यच की गति में दुःख सहन करने पड़ते हैं और नरक गति में अपार वेदना होती है । आपने नारकियों के चित्र देखे होगे । उनमे बतलाया गया है कि, परमाधामी नारकियों को कैसी-कैसी यंत्रणा देते हैं । उन पीड़ाओं के सामने आपके वर्तमान जीवन की पीड़ाऍ किसी हिसाब में नहीं है ।
जातियाँ पॉच हैं - एक इन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चारइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनमें पहली चार अशुभ हैं और अन्तिम शुभ है । अच्छी वस्तुओं की गणना में पंचेन्द्रिय की पूर्णता का उल्लेख होता है, वह आपके लक्ष में होगा ।
वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श शुभ भी होते हैं और अशुभ भी । वर्ण पाँच प्रकार के हैं; इनमें शुक्ल, पीत और रक्त शुभ हैं और नील तथा कृष्ण अशुभ हैं । रस पाँच प्रकार के हैं । उनमें मधुर, अम्ल और कषाय शुभ है और तीखा तथा कड़वा अशुभ है । सुगन्ध तो सबको आकृष्ट करती है । देवों तक का आकर्षण करती है । तभी तो उनकी साधनाआराधना करते हुए उत्तम प्रकार के पुष्प, इत्र और धूप का उपयोग होता है । दुर्गंध किसी को अच्छी नहीं लगती ।
स्पर्श आठ प्रकार के हैं । उनमे लघु, मृदु, स्निग्ध और उष्ण शुभ है और गुरु, कठिन, रुक्ष तथा शीत अशुभ है ।
आनुपूर्वी चार प्रकार की है - उनमें देवानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी शुभ है और तिर्यचानुपूर्वी तथा नारकानुपूर्वी अशुभ है ।
विहायोगति के तो शुभ और अशुभ दोनों प्रकार स्पष्ट माने गये हैं । त्रसदशक शुभ गिना जाता है और स्थावरदशक अशुभ गिना
जाता है ।