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पाठ कर्म करने पर भी यग या कीर्ति पाता है। यहाँ यश शब्द से अमर्यादित क्षेत्र मे प्राप्त हुई ख्याति समझनी चाहिए।
नामकर्म के शुभ और अशुभ ये दो सामान्य भेद है । शुभनामकर्म से शुभ वस्तुएँ मिलती हैं, अशुभनामकर्म से अशुभ । जो जीव मन, वचन, काया की प्रवृत्ति मे एकसूत्रता नहीं रखते, दाभिक प्रवृत्ति करते है, उन्हे अशुभनामकर्म बंधता है और इसके विपरीत प्रवृत्ति करनेवाले को शुभनामकर्म बंधता है। ___ दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, आदि बीस स्थानको में से एक दो या अधिक स्थानकों को स्पर्श करनेवाला तीर्थङ्कर नाम कर्म बॉधता है ।
गोत्रकर्म जिसके कारण जीव को उच्चता-नीचता प्राप्त होती है, वह गोत्रकर्म कहलाता है। उसके दो प्रकार है : (१) उच्चगोत्र और (२)नीचगोत्र । प्रख्यात कुलवान कुल में जन्म दिलानेवाला उच्चगोत्र कहलाता है। और अख्यात या निंद्य कुल में जन्म दिलाने वाला नीच गोत्र कहलाता है।
स्वनिंदा, परप्रशसा, सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणो का आच्छादन एवं विनय तथा नम्रता द्वारा तथा मदरहित पठन-पाठन की प्रवृत्ति द्वारा जीव उच्चगोत्र बाँधता है। परनिन्दा, आत्मप्रशसा, असद्गुणों के उद्भावन, सद्गुणों के आच्छादन और मद वगैरह से नीचगोत्र बाँधता है। ____ अपनी भूरें देखना और आत्मा को ठपका देना स्वनिन्द्रा है; और दूसरों की बुराई करना, दूसरों के दोष गिनना परनिन्दा है। दूसरों के अच्छे गुणों की प्रशसा करना परप्रशसा है और अपनी चडाई खुद करना आत्मप्रगसा है। दूसरों के सद्गुणों को प्रकाशित करना सद्गुणों का उद्भावन है। और, दूसरों के दुर्गुणो को कहते फिरना असद्गुणों का उद्भावन है । किसी के दुर्गुणों को ढकना असद्गुणों का आच्छादन है और किसी के गुण ढकना सद्गुणों का आच्छादन है ।
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