________________
३७६
आत्मतत्व-विचार कहा-"तुम्हारे पास जो कुछ धन-दौलत हो उसे मेरे सामने लाकर इकट्ठा कर दो।"
"लेकिन यह दिन दहाड़े ? कोई देख ले तो ?"-वे पूछने लगे।
सेठ ने कहा-"वह जाये इससे अच्छा है कि, हम ही उसे निकाल दें। इससे त्यागी और वीर भी कहलाऊँगा।'
थोड़ी ही देर मे जर-जेवर और रोकडे का अम्बार लग गया । सेठ ने गाँव में ढिंढोरा पिटवाया कि, "जिमको जितना धन चाहिए कुवेर सेठ के यहाँ आकर ले जावे।
टिंढोरे का पिटना था कि, कुवेर सेठ के यहाँ जो कुछ था, सब एक ही दिन में समाप्त हो गया । अब उसके पास एक टूटी चारपाई और एक टिन के योग्य भोजन सामग्री ही रह गयी। वह बेफिक्री की नींद सोने लगा। अब लक्ष्मी आकर उसके यहाँ से क्या ले जानेवाली थी ?
चौथी रात को लक्ष्मी आयी। उसने बड़ी मुश्किल से सेठ को जगाया। मेठ बोला ? "क्यों देवी जी । जाने के लिए कहने आयी हो न ? आपको जाना हो तो खुशी से चली जायें ।" परन्तु, लक्ष्मी ने कहा-“हे सेठ ! में जाने के लिए नहीं आयी, वापस रहने आयी हूँ।"
कुवेर ने कहा-"परन्तु देवी जी! अब तो मेरे पास कुछ है नहीं । आप यहाँ कैसे रहेंगी?"
लामी ने कहा-"तुमने मुझे फिर से बाँध लिया है। इन तीन दिनों में इतना अधिक पुण्य किया है कि, अब मुझे तुम्हारे पास रहना ही पड़ेगा।"
तीन पुण्य या उग्र पाप का फल तुरन्त दिखलायी दे जाता है। अगर कुवेर सेट लमी को जाती देख रोने लगता; तो क्या लक्ष्मी रहती?
उसने प्रयत्न करके प्रबल पुण्य प्राप्त किया, तो तीन ही दिन में लक्ष्मी को जाने से रोक सका।