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आत्मतत्व-विचार
किया और उसे बाजे-गाजे के साथ घर भेजा और नाई को सजा देकर छोड़ दिया ।
इससे आप समझ गये होंगे कि, लक्ष्मी पुराय के अधीन हैं और वह पुण्य दान आदि करने से उपार्जित होती है ।
कर्म आठ हैं -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय की गणना पहले की गयी, कारण कि ये घातिया कर्म है और इनकी तमाम ( ५ +९+२६+५ = ४५ ) प्रकृतियाँ अशुभ हैं । अघातिया कर्मों में ऐसा नहीं है । उनकी कुछ प्रकृतियाँ शुभ हैं और कुछ अशुभ । सच पूछो तो, कर्म की प्रकृतियों में शुभाशुभ का व्यवहार इन कर्मों के लिए ही होता है ।
अघातिया कर्मों की ४२ शुभ और ३७ अशुभ प्रकृतियाँ
वेदनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ दो है - सातावेदनीय और असातावेदनीय | इनमे सातावेदनीय शुभ है और असातावेदनीय अशुभ ! सातावेदनीय कर्म के उदय से साता मालूम होता है; शांति का अनुभव होता है और आनन्द-ही-आनन्द लगता है, जब कि असातावेदनीय कर्म के उदय में स्थिति इससे विपरीत होती है- नीव दुःखी हो जाता है और ऐसा मानने लगता है कि, हमारे पास नोटों का बडल र्या सोने की पाट आ जायें तो हम सुखी हो जायेंगे । पर, यह एक प्रकार का भ्रम है-उससे सुख ही मिलेगा, ऐसा निश्चित् नहीं है ! सभव है कि, उससे बड़ा ऐसा उत्पात मच जाय जो आपको परीशान कर डाले । सोने की पाट ने कैसा उत्पात मचाया, सो सुनिये :
सोने की पाट का उत्पात
यह एक पौराणिक घटना है। लक्ष्मी और सरस्वती में वादविवाद हुआ । उसमे लक्ष्मी ने अपना तेज बतलाने के लिए १०८ गज लम्बी,