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श्रध्यवसाय
૩૪૭ देव गुरु के दर्शन-समागम का विचार शुभ अध्यवसाय है । उससे शुभ कर्म का बन्ध होता है और फलस्वरूप शुभ वस्तुओ की प्राप्ति होती है।
अब वह मेंढक बड़े प्रयत्न से बावड़ी मे बाहर निकला। वह फुदकताफुटकना महावीर-प्रभु की ओर जा रहा था कि, श्रेणिक राजा के जुलस के एक घोडे के पैर के नीचे आकर बहुत जख्मी हो गया।
आप किसी गाड़ी या मोटर की चपेट में आ जायें और आप को क्षति पहुँच जाये तो आप मोटर वाले को पकड़ें, मारें, पुलिस के हवाले कर दें, मुकदमा चलाये, लेकिन उस मेंढक ने घुड़सवार या घोड़े पर क्रोध नहीं किया। वह धीरे से रास्ते के एक ओर होकर विचार करने लगा "हा ! हा ! मैं कैसा हतभागी हूँ कि, भगवान् के इतने निकट होने पर भी मै उनके दर्शन न कर मका | अब इस भग्न गरीर से तो उनके पास पहुँच नहीं सकता, इसलिए यहीं से उनको वन्दन करता हूँ। हे प्रभो । भवोभव मुझे आपकी ही गरण मिले।"
ऐसे शुभ अध्यवसाय में उसने देह त्याग किवा, इसलिए मरकर वह दर्दुराक-नामक वैमानिक महर्दिक देव हुआ ।
अध्यवसायों में परिवर्तन आत्मा शुभ अध्यवसाय से अशुभ मे और अशुभ से शुभ अध्यवसाय में आ जाता है, इसका अनुभव तो आप ने भी किया होगा। आप यहाँ आकर व्याख्यान सुनते है तब आपको ऐसा अध्यवसाय होता है कि अब क्रोध नहीं करेंगे, अभिमान नहीं करेंगे, छल-कपट नहीं करेंगे, लोभ बिलकुल नहीं रखेंगे, लेकिन यहाँ से बाहर जाने के बाद और व्यवहार या व्यापार में पड़ने के बाद क्या वे अव्यवसाय रहते है ? वहाँ कोई आप का अपमान करे या गाली दे, तो तुरन्त लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं और अपवचन बकने लगते हैं।