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आत्मतत्व-विचार
आत्मा को अनिवार्य रूप में भोगने हो पड़ते हैं । कर्मों के लिए किसी की सिफारिश, गर्म अथवा धौस काम नहीं आती । वे अपना काम अपने नियमानुसार करते ही जाते है । इसलिए रक हो या राजा, भिखारी हो या श्रीमन्त, मूर्ख हो या पडित, छोटा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरुष, सत्रको अपने-अपने कर्म भोगने पड़ते हैं । बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर जैसे महाबली आत्माओं को भी कमों ने नहीं छोड़ा, तो वे अन्य किसी को कैसे छोड़ सकते हैं ?
जो कर्म उदय में आता है, उसका प्रदेशोदय चालू हो जाता है । अगर उसे निमित्त न मिले, तो उसका विपाकोदय नहीं होता - अर्थात् उसके सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता ।
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प्रश्न – किसी स्त्री ने पुरुष को बैल बना दिया तो वह आयुष्य मनुष्य का भोगेगा या बैल का ?
उत्तर - आयुष्य मनुष्य का भोगेगा। बैल का देह तो नामकर्म के विपाक से हुआ रहता है ।
कर्म का प्रभाव अनादि काल से है
प्रत्येक समय आठो कर्मों का उदय रहता है, इसलिए आत्मा पर सब कर्मों का प्रभाव रहता ही है । उन कर्मों के असर वाले परिणाम और प्रवृत्ति से आत्मा प्रत्येक समय सात कर्मों को बॉधता रहता है । आत्मा पर कर्मों का असर अनादि काल से है । वर्तमान में जिन कर्मों का उदय है, वह पूर्वबन्ध के कारण है और वह पूर्वबन्ध उससे भी पहले बाँधे हुए कर्मों के कारण है । इसी प्रकार की श्रृंखला आगे समझ लेनी चाहिए ।
कोई भी विशिष्ट कर्म अपने में सादि-सात ( आदि और अत के सहित ) है, लेकिन परम्परा से वह अनादि है । उदाहरण के लिए कहें, बालक व्यक्तिगत रूप में आदि है, परन्तु बालक के पिता, पितामह आदि की परम्परा की दृष्टि से पितृत्व, और उसकी अपेक्षा से पुत्रत्व, अनादि है । उसी प्रकार कर्म की भी परम्परा अनादि है ।