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कर्म का उदय
३६३ __ अनादि की परम्परा अटक भी सकती है। अगर पीढी की परम्परा मे अन्तिम व्यक्ति को पुत्र न हो, अथवा वह ब्रह्मचर्य पाले और विवाह न करे तो जैसे उसकी परम्परा अवरुद्ध हो जाती है। उसी प्रकार कर्मों की परम्परा भी रोकी जा सकती है। उसका उपाय यह है कि, आत्मा मनुष्यभव, आर्यदेश, उत्तम कुल और सद्गुरु का ससर्ग पाकर परमात्मा का उपदेश सुनकर, ऐसा जीवन व्यतीत करे कि नये पाप कम बंधे और पुराने पाप अधिक खपें । स्पष्ट है कि, किसी तिजोरी मे लाख रुपये पड़े हो, उसमे हजार रुपये रखते जाये और पाँच हजार निकालते जाये तो कुछ समय में तिजोरी खाली हो जायगी।
यह आत्मा परमात्मा का उपदेश श्रवण करके जीवन में उतारे और शुद्ध स्वरूप वाले साध्य की साधना-आराधना करे, तो उत्तरोत्तर गुणो का विकास करके अन्ततः पाँच हस्व 'अ-इ-उ--' के उच्चारण-काल मे शैलेशीकरण द्वारा योगनिरोध करके अनन्त कर्मों की वर्गणाओं का जड़मूल से नाग करके कर्मों की परम्परा को समाप्त कर दे सकता है।
उदयकाल का प्रभाव जैसे शराब आदि पीने के एक निश्चित् काल बाद मनुष्य को अपना व्यक्तित्व भुला देता है, उसी प्रकार कर्म के पुद्गल आत्मा के उदयकाल में ही अपना प्रभाव डालते ही है। उस समय अच्छा-बुरा दोनों प्रकार का फेरफार हो जाता है और कभी-कभी भिखारी लाखों का मालिक बन जाता है । यदि अशुभ कर्मों का उदय हो, तो व्यापार में स्थिरता नहीं आती। तेजी सोच कर व्यापार करे, तो मदी आती है और मदीसोचे तो नित्य बाजार चढ़ता ही जाता है। यदि कोई भली सलाह दे तो वह गले नहीं उतरती।
क्या रूठा हुआ दैव-भाग्य आकर तमाचा मारता है ? नहीं, वह तमाचा नहीं मारता, पर ऐसी दुर्बुद्धि दे देता है कि, जिससे आदमी भिखारी की तरह भटकने लगता है । मुज-जैसे राजा को भिक्षापात्र लेकर