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कर्म का उदय अवाधाकाल पूरा हो चुका रहता है, वे सब एक साथ उदय मे आते है । एक साथ ही वे भोगे जाते हैं और एक साथ ही खिर जाते है।
कर्म का उदय ही इस सम्पूर्ण जगत में उत्पात किया करता है। पर, मनुष्य अपने बुद्धिबल से कर्म में परिवर्तन ला सकता है और कर्म की निर्जरा करके मोक्ष जा सकता है।
कर्म जब उदयावलिका में प्रवेश करते है तो उस समय उनमें जोश अधिक होता है। इसलिए प्रथम उदयावलिका में बहुत-से कर्म-प्रदेश आ जाते हैं, दूसरी उदयावलिका मै कर्म-प्रदेश अपेक्षाकृत कुछ कम होते है, तीसरी उदयावलिका मे उससे कम ! इस प्रकार स्थितिबंध की अन्तिम अवस्था तक कर्म-प्रदेशो की संख्या घटती ही जाती है । अनाज की कोठी का छिद्र खोलें तो पहले बहुत-सारा अनाज बाहर आ जाता है और पीछे बाद में कम आने लगता है । अथवा इस प्रकार समझे कि, बन्दूक से निकली गोली मे पहले गति अधिक होती है और बाद में उसकी गति घटती जाती है।
द्रव्यादिक पाँच निमित्त बाँधे हुए कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव इन पाँच निमित्तों से उदय में आते है। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। मान लीजिए एक आत्मा ने असातावेदनीय कर्म बाँधा और उसे ज्वर आनेवाला है । अगर लड्डु, ज्यादा खाने से वह ज्वर आये तो लड्डु, व्यनिमित्त है, बम्बई, अहमदाबाद या सूरत में ज्वर आये तो ये क्षेत्रनिमित्त हुए । सुबह, दोपहर, गाम या रात्रि को निश्चित् समय पर ज्वर आये तो यह कालनिमित्त हुआ। ठडी हवा, जागरण, व्याकुलता आदि से ज्वर आये यह भावनिमित्त, और इस भव मे या अमुक भव में ज्वर आये यह भव निमित्त हुआ।
कर्म किसी के रोके नहीं रुकते जो कर्म उदय में आते हैं, वे अपना फल अवश्य देते हैं और वे