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आत्मतत्व-विचार
मनुष्य, तिथंच और नरक इन चार में से एक आयुष्य अवश्य उदय में होता है।
नाम-कर्म का उदय भी हर समय चालू रहता है , कारण कि शरीर, जाति, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, स्वर, उपघात, पराघात ये सब हमें होते हैं।
गोत्र-कर्म का उदय भी चालू है; क्योंकि हम उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र में एक अवश्य होता ही है।
और, अन्तराय कर्म का उदय भी चालू रहता है; कारण कि आत्मा के अनन्तदान, अनन्त लाभ अनन्तवीर्य, आदि गुण हम नहीं होते । हमें जो दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य का अनुभव होता है; वह अन्तराय कर्म के क्षयोपशम भाव के कारण होता है। इस प्रकार आठों कर्म का उदय सदा चालू रहता है।
अबाधाकाल जब तक कर्म उदय में आकार फल न दे, तब तक का समय अबाधाकाल कहलाता है । अबाधाकाल का अर्थ कर्म की बाधा-पीड़ान उत्पन्न करनेवाला काल ! सातवे नरक का आयुष्य बॉधा हो, तो भी तत्काल उसका कोई फल नहीं मिलनेवाला है । उदय में आने पर ही वह फल दे सकता है।
आप पूछेगे कि, निश्चित् काल के बाद ही कर्म का उदय क्यों होता है ? इसके लिए बड़ा अच्छा उदाहरण है कि, जैसे भाग, गाँजा, चरस, अफीम, शराब आदि नशीली चीजों का नगा कुछ समय के बाद ही चढ़ता है; उसी प्रकार कर्मों के पुद्गलों का प्रभाव भी एक निश्चित् समय बाद ही होता है।
अबाधाकाल मुद्दतिया हुंडी-सा है। शुभ या अशुभ कर्म कालके पकने पर