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चौबीसवाँ व्याख्यान
कर्म का उदय
महानुभावो! __आत्मविकास के लिए आत्मज्ञान की तरह कर्मजान की भी आवश्यकता है। कर्म के विशद ज्ञान के बिना आत्मा कर्म-बन्धन से बच नहीं सकता । कर्म-ज्ञान हो जाने पर ही आत्मा विकास के मार्ग पर प्रगति कर सकता है । इसी दृष्टि से हम कर्मों की इतनी विस्तृत चर्चा कर रहे हैं।
कर्मवन्धन होता ही रहता है निमिषमात्र में असंख्यात समय व्यतीत हो जाते है । उनमें एक भी समय ऐसा नहीं जाता; जिसमें आत्मा कर्मबन्ध न बॉधता हो । खाते-पीते, चलते-फिरते, सोते-बैठते, यहाँ तक कि मूर्छ की दशा में भी कर्म-बन्ध होता ही रहता है। उसमें प्रकृति, स्थिति तथा रस का निर्माण होता ही रहता है, कारण कि, उस समय भी आत्मा के योग और अध्यवसाय तो चालू रहते ही हैं।
कर्म तुरन्त उदय में नहीं आता आत्मा कर्मबन्ध के समय जो स्थिति वॉधता है, उस स्थिति वाला कर्म तुरन्त उदय में नहीं आता; बल्कि अवसर आने पर उदय में आकर अपना विपाक अर्थात् फल देता है । अवसर न आने तक, वह सत्ता मे पड़ा रहता है-आत्मा से चिमटा रहता है । और, भोगे जाने पर ही वह कर्म आत्मा से अलग होता है।