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आत्मतत्व-विचार
"उसके बाद उन्होने जैसे ही सर पर हाथ रखा कि, उन्हें लोच किया हुआ मस्तक याद आया और उनका क्रोध उतर गया । वे विचारने लगे-- "मैंने तो सदा के लिए सामायिक-व्रत (चरित्र) ले रखा है; चारित्रधारण किया है, मन, वचन, काय से किसी भी जीव की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा ले रक्खी है । लेकिन, यह क्या किया ? सचमुच ! मै धर्मध्यान चूक गया और रौद्र-ध्यान में चढ़ गया! जहाँ सब जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखना है, वहाँ पुत्र के प्रति गग कैसा और मत्रियो के प्रति द्वेष कैसा ? हा ! हा ! मेरे इस दुष्ट कृत्य को धिक्कार है। मैं इस दुष्कृत्य की निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और इन दुष्ट अध्यवसायों में से अपने आत्मा को खींचे लेता हूँ।" हे राजन् । जब वे ऐसा विचार कर रहे थे, तब तुमने दूसरा प्रश्न किया, तो मैने कहा कि वे सर्वार्थसिद्धि-विमान में देव बनेंगे।
"बाद में भी उनके अध्यवसायों की शुद्धि चालू रही और वे उत्तरोतर आगे बढ़ते हुए क्षपफश्रेणी पर आरूढ़ हुए। वहाँ उन्होंने चारो घाती कर्मों का नाश किया और उन्हे केवलजान उत्पन्न हुआ।
प्रभु से ऐसा उत्तर सुनकर, राजा श्रेणिक का समाधान हुआ । आत्मा शुभ अध्यवसायो से चढता है और अशुभ अध्यवसायो से गिरता है, यह इस कथा का मुख्य बोध है। उपरात इसमें से हम तीन निष्कर्ष निकाल सकते हैं
(१) आत्मा का अध्यवसाय हमेशा एक सा नहीं रहता, पर वह बदलता रहता है।
(२) आत्मा शुभ अध्यवसाय से अशुभ अध्यवसाय में और अशुभ अध्यवसाय से शुभ अध्यवसाय में आता रहता है ।
(३) अध्यवसायों के परिवर्तन मे निमित्त काम करते हैं । अशुभ निमित्त से अशुभ अध्यवसाय और शुभ निमित्त से शुभ अध्यवसाय शुरू हो जाते है।