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अध्यवसाय
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प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा सुनिए, आपको इस कथन की प्रतीति हो जायगी।
प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा
एक बार त्रिभुवन तारक जगवंद्य चरम तीर्थङ्कर श्री महावीर प्रभु राजगृही-नगरी के बाहर उद्यान मे समवसरे। उनके साथ तपस्वी, ज्ञानी
और ध्यानी मुनिवरो का विशाल समुदाय था। उनमें प्रसन्नचन्द्र-नामक राजर्षि ध्यान के अभ्यासी थे। वे अपना अधिकाश समय ध्यान मे ही व्यतीत करते थे। उद्यान के एक सिरे पर वे व्याननिष्ठ थे। ध्यान मे वे एक पैर पर खड़े थे, उनके दोनो हाथ ऊँचे थे और उनकी दृष्टि सूर्य के सामने स्थापित थी । पहले ऐसे उग्र ध्यान बहुत किये जाते थे । आजकल वह प्रवृत्ति मंद, बल्कि अतिमन्द है।
श्रेणिक राजा को उद्यानपालक द्वारा समाचार मिला कि सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर नगर के बाहर उद्यान में समवसरे हैं । यह जानकर उन्होने अपने पुत्रपरिवार के साथ दर्शन के लिये जाने की तैयारी की। देव या गुरु के दर्शन को जाना हो तो हृदय में उल्लास धारण करना चाहिए और वस्त्रालकार भी सुन्दर रीति से पहनना चाहिए। गृहस्थो का यह आचार है। राजा जाये तो पूरे ठाठ से जाये ताकि दूसरे लोगो को भी दर्शन की भावना जाग्रत हो ।
श्रेणिक राजा एक जुलूस के साथ प्रभु के दर्शन को चले। उसमे बहुत से हाथी थे, बहुत से घोड़े थे, रय और पैटल भी बहुत-से थे। उस जुलूस के आगे-आगे दो सिपाही चल रहे थे। उनमें से एक का नाम सुमुख
और दूसरे का नाम दुर्मुख था । कदाचित् , उनके बोलने की रीति पर से ही ये नाम पड़े थे।