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यात्मतत्व-विचार
अन्तरायकर्म __ जिम कर्म के कारण यात्मा की लब्धि (गति) में अन्तराय पडे, विन आये वह अन्तरायकर्म कहलाता है। उसकी उत्तर प्रकृतियाँ पाँच है :(१) दानातराय, (२) लाभातराय, (३) भोगान्तगय, (४) उपभोगातगय और (५) वीयांतराय।
हम किसी के पास कुछ लेने गये। देनेवाला मुयोग्य है, देने का मन है, देने की सामग्री मौजूद है, फिर भी देने का उत्साह नहीं होता । वहाँ टनेवाले के लिए दानातगय और लेने वाले के लिए लाभांतराय है । लाभातराय टूटता है तो लाभ होता है, अन्यथा नहीं होता।
रोज नवी वस्तु भोगने मं यावे वह भोग है। और एक ही वारवार भोगी नाये वह उपभोग है। भोग्य वस्तु तैयार हो मगर उसका भोग न किया जा सके तो वह भोगांतराय है।
उपभोग की वस्तु (जैसे पत्नी, आदि) मौजूद हो मगर उसका उपभोग न हो सके, तो वह उपभोगान्तराय है। - कोई कहे कि 'ऐसा पाप का साधन न मिले, उसमें अन्तराय आवे, तो हम पाप से बच जायेंगे।' ऐसा कहना ठीक नहीं है, कारण कि वहाँ भोगोपभोग की इच्छा है फिर भी भोग नहीं सकते, इसलिए दुःख होता है । अगर आप समझबूझकर भोग-उपभोग न करें तो पाप से बच सकते है और आपकी आत्मा को सुख-गाति का अनुभव हो । ___ मनुष्य जवान है, कसरत करता है, खाता-पीता है, फिर भी शक्ति न आवे तो उसका कारण वीर्यातराय है । व्रतनियम स्वीकारने में, एव त्यागवृत्ति विकसित करने में जो उत्साह प्रकट करना चाहिए वह प्रकट न कर सकने का कारण भी वीयोतराय है।
जिनपूजा का निषेध, हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन, आदि में तत्परता, मोक्षमार्ग में दोप बताकर विघ्न डालना; साधुओं को भात-पानी, उपाश्रय-उपकरण, औषध, आदि देने का निषेध