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श्रात्मतत्व- विचार
एक दृष्टिविष सर्प है । तीन बार समझा कर
के वनखंडों मे मन बहलाना, मगर दक्षिण दिशा मे मत जाना, क्योंकि वहाँ वहाँ जाने मे जान का खतरा है ।" इस तरह दोरयणा देवी अपने काम पर चली गयी ।
देवी के चले जाने पर दोनो भाई बेचैन रहने लगे । मन बहलाने के लिए उत्तर, पूर्व और पश्चिम के वनखडो में गये, लेकिन उनका मन प्रमुदित नहीं हुआ । अत में वे विचार करने लगे कि "देवी ने हमें दक्षिण दिशा मे जाने के लिए मना किया है, लेकिन हो न हो उसमें कुछ रहस्य अवश्य है । उसका पता लगाना चाहिए ।"
वे दक्षिण के वनखण्ड में प्रविष्ट होकर बड़ी सावधानी से चलने लगे । कुछ दूर गये होगे कि घोर दुर्गंध आने लगी । कुतूहलवश उसका पता लगाने लगे । वहाँ उन्होंने एक सूली देखी जिस पर एक आदमी चढा हुआ था । उसके पास के कुऍ से असह्य दुर्गन्ध आ रही थी । उसमें आँककर देखा तो सड़ता हुआ लाशों का ढेर दिखायी दिया । उन्हें यह समझने में देर न लगी कि, लोगो को सूली पर चढ़ाकर कुऍ में फेक दिया गया है ।
सूली पर चढा हुआ आदमी अभी जीवित मालूम होता था। दोनों भाई उसके पास गये और पूछने लगे - "भाई । तुम कौन हो ? यहाँ क्यों आये ? और तुम्हारी यह दुर्दशा किसने की ?" उस आदमी ने उत्तर दिया - " मैं काकढी - नगरी में रहनेवाला घोड़ो का व्यापारी हूँ । एक चार अनेक जाति के घोड़े आदि लेकर लवण समुद्र की यात्रा पर निकला था । वहॉ तुफान में जहाज टूट गया । तख्ते के सहारे इस द्वीप पर आया । वहाँ रयणादेवी के आमंत्रण से उसके साथ रहकर भोग भोगता रहा । एक बार एक अत्यन्त अकिंचन कारण से वह कोपायमान हुई और उसने मेरी यह दशा कर डाली । तुम्हारी भी ऐसी हालत न कर दे इसका ख्याल रखना । "