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आत्मतत्व विचार
सार्थवाह के पुत्रों की कथा चम्पा नगरी में माकटी नामक एक सार्थवाह रहता था । उसके पास पुष्कल धन था और लोगो में उसकी बहुत प्रतिष्ठा थी। उसके दो पुत्र थे, एक का नाम जिनपालित और दूसरे का निनरक्षित था। दोनो पुत्र विद्यावान, साहसी और पराक्रमी थे। उन्होंने ग्यारह बार समुद्र-यात्रा की थी और खूब धनार्जन किया था। वे बारहवीं बार समुद्र-यात्रा के लिए नैयार हुए मनुष्य की तृष्णा का अन्त कहाँ है ? __ उन्होने माता-पिता से अनुमति मांगी। माँ बाप बोले-"पुत्रो! हमारे पास सात पीढ़ियो तक के लिए काफी धन है। इसलिए, अब समुद्र-यात्रा का खतरा उठाने की क्या आवश्यकता है ? खाओ, पिओ और आनन्द करो। अनुभवियों ने भी कहा है कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत् ।' इसलिए अब तुम यह बारहवीं यात्रा का विचार छोड दो।" लेकिन, पुत्र
अपने विचार में दृढ़ थे । इसलिए, अन्ततः माता-पिता को अनुमति देनी 'पडी और वे जहाज में विभिन्न वस्तुएँ भरकर सागर के सफर को निकले ।
कुछ दिन तो सब ठीक रहा और वे मानन्द-विनोटपूर्वक यात्रा करते रहे । लेकिन, एक दिन भयकर तूफान आ गया। जहाज प्रचंड लहरो के थपेडे खा-खाकर इधर-उधर उछलने लगा। जहाज के तख्ते टूट गये। लोग समुद्र मे जा पडे और लाखो रुपये का माल डूब गया । लेकिन, सद्भाग्य से सार्थवाह के पुत्रों के हाथो में एक बड़ा तख्ता आ गया । वे उसके सहारे तैरते हुए एक द्वीप के किनारे लग गये।
दोनों भाई उस अनजान द्वीप पर उतरे। उन्होने वनफल लाकर भोजन किया और नारियल का पानी पीकर अपनी तृपा बुझायी। उसके चाद विश्राम करने के लिए एक गिला पर बैठे।
उस समय उन्हे चम्पा-नगरी, माता-पिता, उनके शब्द, अपना आग्रह, आगापूर्ण प्रयाण, यह सब स्मरण आने लगा । सोचने लगे-"अत्र क्या