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आठ कर्म पड़ेगा कि मान्यता को उलझन मे डालने वाला कोई कर्म है। आप रेल में सफर कर रहे हो तो आपकी गाड़ी चलती होते हुए भी स्थिर दिखती है
और सामने की गाडी स्थिर होते हुए भी चलती दिखती है। उसी तरह दर्गनमोहनीय-कर्म के कारण आत्मा को भ्रम होता है, इसलिए असत्य को वह सत्य समझता है और सत्य को असत्य समझता है । परिणामस्वरूप वह अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र-गुण की शक्ति को पहचान नहीं सकता एव अपने मूल स्वरूप सत्, चित् और आनन्द का दर्शन नहीं कर सकता।
दर्शन-मोहनीय-कर्म तीन प्रकार का है-(१) सम्यक्त्वमोहनीय, (२) मिश्रमोहनीय और (३) मिथ्यात्वमोहनीय ।
आत्मा अपने अध्यवसाय से मिथ्यात्व के पुद्गलो को शुद्ध करे और उसमे से मिथ्यात्व चला जाये, उसे सम्यक्त्व-मोहनीय कहते हैं। शुद्ध हुआ मिथ्यात्व का दलिया प्रदेश से वेदे तब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। जब यह दलिया प्रदेश से भी न वेदे तब आत्मा को औपशमिकसम्यक्त्व का लाभ होता है। उसे ऐसे निर्मलजल के समान समझना जिसका कचरा नीचे बैठ गया है। मिथ्यात्व के शुद्ध, अर्द्धशुद्ध और अशुद्ध ये तीनो दलिये सर्वथा नष्ट हो जाये तब जीव को क्षायिक सम्यक्त्व का लाभ होता है। क्षायिक सम्यक्त्व आत्मा का मूल गुण है । इससे यह समझना कि, सम्यक्त्व मोहनीय क्षायिक सम्यक्त्व का रोध करता है।
मिथ्यात्व आधा ही जाये और आधा रहे, उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं । ऐसे मनुष्य अनिश्चित दशा में रहते हैं। वे दूध और दही मे
दसणमोहं तिविहं सम्म मीसं तहेव मिच्छत् । सुद्धश्रद्धविसुद्ध असुद्ध तं हवह कमसो ॥
प्रथम कर्मग्रन्थ गाथा १४।।