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आत्मतत्व-विचार
है । माया अर्थात् छल-प्रपच, कपट, दगा, कुटिलता, दभ, पाखण्ड, धूर्तता, स्वार्थ !
जो आत्मा अल्पारंभी, अत्पपरिग्रही, ऋजु और मृदु स्वभाव वाली होती है, वह मनुष्य का आयुष्य बाँधती है— अल्पारंभी अर्थात् कम हिंसा करनेवाली अल्पपरिग्रही अर्थात् कम परिग्रह रखनेवाली ऋजु और मृदुस्वभाववाली अर्थात् सरलता और दया के परिणाम रखनेवाली ।
जो आत्मा सरागसयम या सयमासयम पालती है, अकाम निर्जरा करती है, बालतप करती है वह देवका आयुष्य बाँधती है । सम्पूर्ण का छूटने से पहले का चरित्रसरागसंयम है। आशिक विरति यानी देशविरति सयमासयम है । इच्छारहित त्याग से जो कर्म निर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा है | अज्ञान पूर्वक किया जाने वाला तप बालतप है। इसका अर्थ यह हुआ कि व्रतनियम और नपतप बिना समझे भी करनेवाला देवताका आयुष्य बाँधता है ।
नामकर्म
जिस कर्म के कारण आत्मा शुभ-अशुभ शरीरादि धारण करती है, उसे नामकर्म कहते है । चित्रकार की तरह यह कर्म आत्माके लिए अच्छा-बुरा रूप, रंग, अवयव, या, अपयश, सौभाग्य, दुर्भाग्य आदि का निर्माण करता है ।
नामकर्म की मूल उत्तर प्रकृतियाँ ४२ है । १४ पिंडप्रकृति, ८ प्रत्येक प्रकृति, १० स्थावरदशक और १० सदा । इनमें पिंडप्रकृति के उपभेट ७५ है । इनके अलावा प्रत्येक प्रकृति के ८, स्थावरदाक के १० और त्रसदशक के १० भेद मिलकर नामकर्म की कुल १०३ उत्तरप्रकृतियाँ होती है ।
जिनमें दो, तीन या अधिक प्रकृतियों साथ हो वे पिंड प्रकृतियाँ कहलाती हैं। उनके १४ प्रकार है ( १ ) गति, ( २ ) जाति, ( ३ )