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आत्मतत्व-विचार
वर्तमान काल में भी स्त्यानर्द्धि-निद्रा के अनेक उदाहरण मिलते है । आज के मानसविज्ञान ने उसे 'विचित्र प्रकार की निद्रा' कहा है । शास्त्रकार कहते है कि जिसे इसका उदय होता है, वह मरकर अवश्य नरक जाता है ।
जिन ६ कारणो से जीव ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है, उन्हीं ६ कारणो से दर्शनावरणीय कर्म चाँधता है । अन्तर इतना ही है कि, ज्ञान और ज्ञानी की आशातना से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधता है और दर्शन और दर्शक की आशातना से दर्शनावरणीय कर्म बाँधता है।
वेदनीय-कर्म
जो कर्म आत्मा को सुख दुःख का वेदन कराये, अनुभव कराये, वह वेदनीय कर्म कहलाता है । आत्मा स्वरूप से आनन्दघन है; फिर भी इस कर्म के कारण वह काल्पनिक सुख-दुःख का अनुभव करता है । गढ से लिपटी हुई तलवार की धार को चाटने से सुख का अनुभव होता है और जीभ कटने से दुःख का अनुभव होता है ।
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इस कर्म की उत्तर प्रकृत्तियाँ दो हैं - (१) शातावेदनीय और ( २ ) अशातावेदनीय । आधि, व्याधि और उपाधि इनमें से किसी एक या दो या तीनों से घिरे हुए जीव को जो दुःख का अनुभव होता है, वह अगाता वेदनीय का उदय है । और शरीर निरोगी हो, पास पैसा हो, विशेष चिन्ता करने का कारण न हो, कुटुम्ब की अनुकूलता हो, ऐसे अनुकुल सयोगों के कारण जो सुख का अनुभव होता है, वह शातावेदनीय का उदय है ।
शातावेदनीय और अगातावेदनीय के बन्धन के कारण बताते हुए शास्त्रकारो ने कहा है कि
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गुरुभत्ति खंति करुणा-चय-जोग-कलायविजय दाणजुओ । अजद्द, सायमसायं
दृढ धम्माह
विवज्जयो ।