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पाठ कर्म
(५) जान, ज्ञानी या जान के साधनो की आशातना करना । (६) कोई ज्ञान प्राप्त करता हो, तो उसमं अन्तराय डालना। शास्त्रकारों ने कहा है कि
विराधयन्ति ये ज्ञान, मनसा ते भवान्तरे।
स्युः शुन्यमनसो मा, विवेकपरिवर्जिताः ॥
—जो मनके द्वारा जान की विराधना करता है, वह परभव में शून्य ___ मनवाला और विवेक रहित होता है।
विराधयन्ति ये ज्ञान, वचसापि हि दुर्धियः।
मूकत्व मुखरोगित्व-दोषास्तेषाम संशयम् ॥ —जो दुष्टबुद्धि वाले वचन द्वारा जान की विराधना करते हैं, उन्हे निश्चित गूंगापन तथा मुख के रोग आदि दोप होते है।
विराधयन्ति ये ज्ञानं, कायेनायलवर्तिनी।
दुष्ट कुष्टादिरोगाः स्युतेषां देहे विगर्हिते ॥ जो उपयोगहीन काया द्वारा ज्ञान की विराधना करते है, उनके निन्दनीय शरीर में कोढ आदि दुष्ट रोग होते हैं ।
मनोवाक्काययोगैर्ये, शानस्याशातनां सदा । कुर्वते मूढमतयः, कारयन्ति परानपि ॥ तेषां परभवे पुत्र-कलत्रसुहृदां क्षयः ।
धनधान्यविनाशश्च तथाधिव्याधि सम्भवः ॥ जो मूढमति मन, वचन और काया के योगो द्वारा सदा ज्ञान की आशातना करते है और दूसरो से कराते है, उन्हे परभव में बहुत सहन करना पड़ता है । उनके पुत्र, स्त्री और मित्रो का क्षय होता है, धनधान्य का विनाश होता है तथा आधि-व्यावि की उत्पत्ति होती है। । आपने वरदत्त और गुणमजरी की कथा सुनी होगी। गुणमंजरी जन्म