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आठ कर्म
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होते है; इसलिए, वेदनीय के बाद मोहनीय है । मोहनीय कर्म से पीडित जीव अनेक प्रकार के आरभ समारभ करता है और नरकादि आयुष्य बॉधता है, इसलिए मोहनीय के बाद आयुष्य - कर्म को रखा गया है । आयुष्य-कर्म शरीर के बिना नहीं भोगा जा सकता, इसलिए आयुष्य-कर्म के बाद नाम-कर्म रखा गया है। नाम-कर्म के उदय होने पर उच्च-नीच गोत्र का उदय अवश्य होता है, इसलिए नाम-कर्म के बाद का स्थान गोत्रकर्म को प्राप्त हुआ है । और, उच्च-नीच गोत्र के उदय होने पर अनुक्रम से दान, लाभ, आदि का उदय तथा नाश होता है, इसलिए गोत्र-कर्म के चाद अन्तराय - कर्म को रखा गया है।
ज्ञानावरणीय कर्म
जो कर्म ज्ञान को ढके, ज्ञान का प्रकाश कम करे, ज्ञान पर आवरण डाले, वह ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है। जैसे आँखों में देखने की शक्ति है; लेकिन उन पर पट्टी बाँध दी जाये, तो वे नहीं देख सकतीं; उसी प्रकार आत्मा मे सब कुछ जानने की शक्ति होते हुए भी वह ज्ञानावरणी कर्म के कारण जान नहीं सकता ।
ज्ञानावरणीय कर्म का जितना क्षयोपशम होगा, उतना ही आत्मा को ज्ञान होगा, उससे अधिक नहीं । जिनके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम कम होगा वे कम जान सकेंगे और जिनका अधिक होगा वे अधिक जान सकेंगे । केवली भगवत के ज्ञानावरणीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय हो चुका होता है, इसलिए वे सब जान सकते है । मनुष्यों में ज्ञान की जो बड़ी -तरतमता दिखायी देती है, वह इस ज्ञानावरणीय कर्म के ही कारण है ।
किसी वस्तु का आपको पहले ज्ञान था और अब स्मरण करना चाहते
* क्षय और उपक्षय की क्रिया क्षयोपशम है पानी में रहता कचरा नाश को प्राप्त हो तो वह क्षय है और कचरा का नीचे बैठ जाये तो वह उपशम है ।