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श्रात्मतत्व-विचार
श्राश्रव - कर्म का आत्मा की ओर आना, जैसे तालाब मे पानी आने का साधन नाली है, वैसे ही आश्रव आत्मा में कर्म के प्रवेश का साधन है ।
संवर - आत्मा की ओर आते हुए कमों को रोक ! जैसे नाली घट कर देने से तालाब में नया जल नहीं आता वैसे ही सवर धारण करने से आत्मा मे नये कर्मों का प्रवेश नहीं होता ।
निर्जरा - कमों का खिर जाना। जो कर्म आत्मा को चिपके हुए है आत्मा में तादात्म्य भाव प्राप्त किये हुए हैं, वे कर्म आत्म प्रदेश से (जत्र ) पृथक होते है, तब कर्म निर्जरा हो जाता है ।
बंध - कार्मण वर्गणा के पुद्गलो का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना और तादात्म्य भाव प्राप्त करना । कर्म का वध किस हेतु से होता है, और उनके कितने प्रकार है आदि बातें हम बाढ मे विस्तारपूर्वक समझाएँगे । "अतः हम उनका विशेष विवेचन नहीं कर रहे हैं ।
मोन - कर्म के सर्व बधनों में से आत्मा की मुक्ति, शुद्धि, शिवपद, परमपद, पंचमगति, निर्वाण ये उसके पर्याय है ।
इन नौ तत्त्वां मे मे कर्मवाद को निकाल ले, तो बाकी क्या रहेगा ? इसीलिए हम कहते है कि, जैन-तत्त्वज्ञान में कर्मवाद ओतप्रोत है ।
जैनधर्म के कर्मवाद को समझ लेने पर से किया जा सकता है; और मुमुक्षु पाप को सकते है | लेकिन, जो पाप और पुण्य में भेद पुण्य मानते हैं, वे पापो से कैसे बच सकते है ? लेकिन दुनिया का ढंग ऐसा है कि, यहाँ पापी भी पुण्यात्माओं की पक्ति में विराजमान हो जाते है !
यहाँ हमें प्राचीनकाल की एक बात याद आती है ।
पुण्य-पाप का विवेक सरलता छोड़कर पुण्य मार्ग अपना नहीं समझते या पाप को