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आत्मतत्व-विचार
है कि 'योग से कर्मबन्धन टूटता है, वहाँ योग का अर्थ 'प्राणिधान से अत्यन्त शुद्धीकृत धर्मव्यापार' है ।*
इस धर्म-व्यापार से कर्मबंधन टूटता है, इसमे आश्चर्य क्या है ? जिन-जिन महापुरुपो का कर्मबंधन टूटा है, वह प्राणिधान से अत्यन्त शुद्ध हुए धर्मव्यापार से ही टूटा है ।
पर, मैं यहाँ यह कहने वाला हूँ कि 'योग से कर्मबंधन होता है। यह बात भी उतनी ही सच है। यहाँ 'योग' गन्द प्राणिधान से शुद्ध हुए धर्मव्यापार के अर्थ में नहीं है।
यहाँ 'योग' शब्द का अर्थ आत्म-प्रदेशों का आन्दोलन या स्पन्दन है। ऐसे योग यानी स्पन्दन से आत्मा कार्माण-वर्गणाओं को अपने में मिला लेता है और वही कमबन्ध है। यह याद रखना चाहिये कि कार्माण वर्गणाएँ जब आत्मा के साथ मिल जाती हैं तभी वे कर्म कहलाती है, उससे पहले नहीं।
योग अर्थात् प्रवृत्ति 'योग' गन्द का एक अर्थ 'व्यापार' या 'प्रवृत्ति' है और आत्मप्रदेगो का आन्दोलन या स्पन्दन आत्मा का व्यापार या प्रवृत्ति है, इसलिए उसे योग संजा दी गयी है। सामायिक ग्रहण करते समय आप 'करेमि भते ! सामाइय सावज जोगं पच्चक्खामि' ये शब्द बोलते है। वहाँ 'जोग यानी योग का अर्थ 'व्यापार' या 'प्रवृत्ति' ही है।
मुक्खेण जोयणाओ, जोगो सन्चोवि धम्मवावारो। परिसुद्धो विन्नेग्रो ठाणाइगयो विसेसेणं ॥
__ -श्री हरिभद्र सूरिकृत योगविशिका 'प्रणिधान से अत्यन्त शुद्ध किया हुआ सर्व धर्मव्यापार मोक्ष में जोड़नेवाला होने के कारण योग जानना चाहिए और विशेषत स्थानादिगत जो धर्म-व्यापार हो उसे योग जानना चाहिए।